पुरातत्व में उज्जैनी का महत्व और वैश्य टेकड़ी वैश्विक झरोखे से

◆ वैश्य टेकडी के वैश्विक झरोखे में


◆ क्यों हैं वैश्य टेकड़ी महत्वपूर्ण


◆ स्तूप क्यों हैं खास



युवा काफिला,उज्जैन- 


इस लेख का मुख्य आधार डॉ. रामकुमार अहिरवार कि किताब “बौद्ध धर्म का ईतिहास” है। वैश्य टेकडी इस विषय पर इसी किताब का संक्षिप्त लेख,  बुद्धीज्म के संचारन और स्तूपों के  निर्माण  में सम्राट अशोक की प्रथम अर्धांगी देवी का योगदान वास्तविक अद्वितीय है। अधिकतम इतिहासकार यही मानते है और सुनाते है की सम्राट अशोक ने कलिंग युद्ध के बाद बुद्धिज्म को स्वीकारा। इस संदर्भ में वे धौली के शिलालेख का प्रबल  आधार लेते है। 


किन्तु “बौद्ध धर्म का ईतिहास”  इस किताब तथा उज्जैन के पुरात्विक अवशेष एव  साहित्य का मत कुछ ओर ही है। “बौद्ध धर्म का ईतिहास”  इस किताब का मत है की  सम्राट अशोक को देवी से दो पुत्र उजेन और महिंद्र तथा एक बेटी संघमित्रा का जन्म हुवा। उज्जैन में बुद्ध के हयात में बूद्ध की "आसन्दी " (आसन) और "आस्तरण" (बिछाना) पर स्तूप का निर्माण किया गया। जो बूद्ध के महापरिनिर्वाण के समय उज्जैनवासियों के हिस्से में मिली थी। 



महास्थवीर महाकच्छायन का जन्म उज्जयिनी में हुआ था। बुद्ध से मिलकर वे प्रवज्जीत हुए थे। उनके समकालीन राजा प्रद्योत थे। राजा प्रद्योत  और महाकच्छायन के सत्प्रयासों से पूरे क्षेत्र में बुद्ध कि शिक्षा जनमानस में  अनुकरीय हो चुकी थी। एवं बुद्ध के कुछ भिक्षु और भिक्षुनिया अवन्ति से थी, अतः यह सपष्ट है कि अशोक से पहले भी उज्जैन राज्य में बुद्धीज्म कि जडे मजबूत हो चुकी थी। 


डॉ. रामकुमार अहिरवार ने  कहा कि महावंश मे चैत्यागिरि नाम के एक विहार का उल्लेख मिलता है आज यह वैश्य टेकली के नाम से जानी जाती है। अशोक से पहले बना यह भौतिक चैत्य को अशोक कि अर्धान्गी  राजकुमारी देवी ने जीर्णोद्धार करवाया था। जिसका पुरातात्विक प्रमाण आज भी है। यहाँ एक विशाल तथा दो छोटे स्तुप मिले हैं। जो संघमित्रा और महेंद्र के है। इस स्तूप का जीर्णोद्धार  सम्राट अशोक की प्रथम अर्धांग्नी देवी ने किया। उसे बड़े आकर का स्वरूप देकर तोरणद्वार का निर्माण किया। यह कार्य देवी ने जब सम्राट अशोक उज्जैन के उपराजा थे उन्ही के हयात में किया। देवी व्यापारी की बेटी थी उन्हें सामाजिक रीती-रिवाजो के अनुसार वैश्य समाज की प्रतिष्ठा थी। इसलिए वर्तमान में इस स्तूप को  वैश्य टेकली के नाम से जाना जाता है। इस स्तूप को दक्षिणागिरि  भी कहते है। 


 


डॉ. रामकुमार अहिरवार ने आगे कहा  की देवी के प्रभाव में सम्राट अशोक ने उज्जैन नगर के चारो ओर  स्तूपों का निर्माण किया था। यह कार्य अशोक ने उपराजा रहते हुए ही किया था। इससे यह निष्कर्ष प्राप्ती होती है कि  सम्राट अशोक बुद्धीज्म के कलिंग युद्ध के पहले  से ही  उपासक रहे।  उज्जैन में बुद्ध से लेकर गुप्त तक बुद्धिज्म का प्रभाव चारो  रहा। सम्राट अशोक के प्रथम पुत्र उजेन  का अलप आयु में शरीर शांत होने से इस नगरी का नाम उज्जैन रखा गया।


सयुक्त निकाय, प्रथम भाग, अनुवादक - भिक्षु जगदीस काश्यप, त्रिपिटकाचार्य भिक्षु धर्म-रक्षित (जिन्होंने 26 नवम्बर 1956  में सारनाथ में डॉ. बाबासाहाब आम्बेडकर का बोधिसत्व के रूप में जयघोष किया था) महाबोधि सभा, सारनाथ 1954 पुष्ट  क्रमांक. 6 में कहा है की उज्जैन मे अशोक का एक अभिलेख प्राप्त हुवा है।  किन्तु दुर्भाग्य से वह अभी प्रकाश में नही आया, वर्तमान में अप्राप्त है। सम्राट अशोक के मध्य प्रदेश में छोटी छोटी जगह पर अभिलेख प्राप्त होते है तो निश्चित उज्जैनी में भी अभिलेख होना चाहिए।



महाथेरी  संघमित्रा उन्सठ  (59) की आयु में "हत्थालूक विहार" में परिनिर्वाण हुवा।  उस समय सिहलीद्वीप  के राजा उत्तीय  ने महाथेरी  संघमित्रा की अस्थि  अवशेषों पर स्तूप का निर्माण किया और सिंहलद्वीप में भी वैश्यगिरि (गिरी अर्थात पर्वत) विहार का निर्माण हुवा। उज्जैनी के संघरक्षित स्थविर ने दक्षिणागिरी (वैश्य टेकरी) से 40 हजार बौद्ध भिक्षुओं को श्रीलंका ले गए थे। 



इसी प्रकार महेंद्र के परिनिर्वाण की अस्थियों पर श्रीलंका में स्तुप का निर्माण किया गया था। महिंद्रा औऱ संघमित्रा की अस्थियो के कुछ भाग को उज्जैन में लाए गए और उन्ही के अस्थियों पर स्तुपो का निर्माण किया गया।


अशोक ने  विदिशा मथुरा मार्ग में स्थित तुमैन (तुम्बवन)  में कई स्तुप बनवाए थे। इसके अलावा महेश्वर (महिष्मती) से भी बौद्ध इमारतों के प्रमाण मिले हैं। ईटों के आकार से पता चलता है कि यह मौर्यकालीन है। 


मौर्यवंश के अंतिम सम्राट ब्राह्द्त मौर्य के हत्या के बाद पुष्यमित्र शुंग के शासन काल में बुद्धीज्म के संचारन में कई अड़चनें आयी। पुष्यमित्र, जो ब्राह्मण धर्म का कट्टर अनुगामी था। इन्होने कई बौद्ध विहारो को नष्ट करवा दिया तथा साकल (सियाल कोट, पंजाब) के सैन्य अभियान के दौरान कई बौद्ध- भिक्षुओं की हत्या करवाई।


किंतु पुष्यमित्र शुंग के उत्तराधिकारी ने अशोक द्वारा निर्मित साँची के स्तुप को ऊपर से प्रस्तर- निर्मित एक भित्ति से ढ़का था। साँची का दूसरा तथा तीसरा स्तुप भी  शुंगकाल में ही निर्मित है। भरहुत के स्तुप के अभिलेखों से पता चलता है कि विदिशा के  रेवतीमित्र व उनकी रानियों ने भरहुत के स्तुप के निर्माण में सहयोग दिया था।


कण्व तथा सातवाहन काल में इस क्षेत्र में बुद्धीज्म अपने उत्कर्ष पर था। इसी काल में साँची के मुख्य स्तुप के चारों तरफ तथा तीसरे स्तुप के एक तरफ प्रसिद्ध द्वार बनाये गये। यह निर्माण सातवाहन राजा शतकर्णी के शासन में हुआ। बुद्धिज्म का अस्तित्व पश्चिमी क्षत्रपों के काल में भी बना रहा। उज्जैन में मिला चाहरदीवारी का हिस्सा, जो महाकालेश्वर ज्योतिलिंग के पास मिला है, संभवतः बौद्ध स्तुप का ही एक हिस्सा था। इनका उल्लेख यहाँ के अभिलेखों में मिलता है।


अशोक के बाद महायान शाखा को प्रसिद्धि मिली। इसके प्रचार में इस क्षेत्र में गोतीपुत की महत्वपूर्ण भूमिका थी। अभिलेखों से यह भी ज्ञात होता है कि कुषाण काल की बुद्ध व बौधिसत्वों की मूर्तियों तथा स्तुपों के निर्माण में सभी वर्ग व व्यवसाय के लोगों ने सहयोग दिया था।


बौद्ध भिक्षु को कुछ विशेष उपाधियाँ देने का प्रचलन शुरु हुआ, जैसे थेर (venerable ), भदंत (सबसे सऋदय), मानक (ग्रंथों का पठन करने वाला), धमकाथिका (धर्म का उपदेशक), सधिविहारी (साथ में वास करने वाला भिक्षु), विनायक (विनय का उपदेशक), सुतातिक व सुतातिकिनी (जो सुत्तो की अच्छी जानकारी रखता है), पंचनेकयिका (पाँच निकायों व सपुरिसा की जानकारी रखने वाले बौद्ध भिक्षु) विशेष इन साहित्यो में बौद्ध भिक्षुओ के लिये अयप्पा स्वामी शब्द पाया जाता है अर्थात उदार स्वामी। इस शब्द से यह स्पष्ट होता है कि केरला स्थित सबसे प्रसिद्ध अय्यप्प मंदिर  पतनमथिट्टा  पहाड़ियों पर सबरिमाला  मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध है।  अयप्पा की स्तुति में भक्त “स्वामि शरणम् अयप्पा” का जप करते है जैसे "बुद्धं शरणं गच्‍छामि, धम्म शरणं गच्‍छामि, संघं शरणं गच्‍छामि।


देश का दुर्भाग्य और जनता की संकीर्ण  मानसिकत के चलते महाथेरी संघमित्रा के स्तूप को नष्ट किया गया। किन्तु अन्य दोनों स्तूप यथावत है। किंतु अतिक्रमण और अवैध ले आउट का कब्जे से  अतिक्रमण स्तुपो के पास पहुच गया है।  प्रति वर्ष फ़रवरी महा के प्रथम सप्ताह में यहां महोत्सव आयोजित करके अतीत के वैभव को पुनर्जीवित करने का कार्य निरन्तर चल रहा है। हालही में उजेन (उज्जयिनी) की ऐतिहासिकता साहित्य और पुरात्विक धरोहर को स्थानीय युनिवर्सिटी के प्रख्यात डॉ. रामकुमार अहिरवार  से जानने और समझने का प्रत्यक्ष रूप से प्रयास किया।  बुद्ध के जीवनकाल से ही अवन्ति बुद्धीज्म का एक महत्वपूर्ण केन्द्र रहा है। बुद्ध के समय बुद्ध कि शिक्षा, जनो तक संचारित करणे में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका महास्थवीर महाकच्छायन की थी। 


कहां हैं स्थित
शहर से करीब 5 किमी दूर उज्जैन-तराना रोड पर करीब 100 फीट ऊंची और 350 फीट व्यास की विशाल टेकरी है। सम्राट अशोक के समय देश में जिन स्तूपों का निर्माण कराया गया था, उनमें वैश्य टेकरी का यह स्तूप भी शामिल है। बौद्धों के चार तीर्थस्थलों में यह चौथा और महत्वपूर्ण है।उज्जैन तहसील अंतर्गत ग्राम ओंडासा स्थित वैश्य टेकरी एक मात्र राष्ट्रीय संरक्षित स्मारक है। ग्वालियर स्टेट के पुराविद की ओर से 1937-38 में उत्खनन कार्य किया था, लेकिन कार्य पूरा नहीं हो सका। इससे यहां की पूर्ण सामग्री प्रकाश में नहीं आ सकी। इसकी पौराणिकता और उत्खनन में निकली सामग्रियां इसे विश्व धरोहर में शामिल कर सकती हैं।


इसलिए विशेष- जानकारों के अनुसार करीब 2300 वर्ष पूर्व अशोक मौर्य जब 11 वर्ष तक यहां राज्यपाल के रूप में तैनात थे तब उन्होंने उज्जैन से खाड़ी देशों तक 84 हजार स्तूपों का निर्माण करवाया। आकार-प्रकार के मान से उनमें सबसे बड़ा स्तूप उज्जैन में हैं। स्तूप का आकार 100 फीट लंबा 350 का व्यास का है। कहते हैं यहां स्तूप में भगवान बुद्ध के वस्त्र व आसंदी हैं।
उज्जैनी प्राचीन काल से बौद्ध धर्म का केंद्र रही है ।यहां पर अनेक पुरा अवशेष है , जो संग्रहालय में प्रदर्शित हैं अथवा नष्ट हो गए हैं ।



वेदों में स्तूप
स्तूप शब्द ऋग्वेद में दो बार आया है । एक स्थान पर चारों और फेलते हुए वृक्ष के आकार से उसकी तुलना की गई है । भगवान बुद्ध के पूर्व वैदिक साहित्य के अनुसार स्तूप शब्द किसी महापुरुष के स्मारक का भी धोत्तक रहा है। लेकिन अधिकांशत है यह शब्द वैदिक सभ्यता के वेदिका से भी सम्मानित किया गया है । स्तूप वस्तुत है भगवान बुद्ध के बाद ही विकसित अवस्था में पाते हैं।  प्रारंभ में शमशान का स्वरूप थूप   जैसा ही था । उसके अंदर शव की जली हुई  अस्थियों  को विधिवत सहेज कर रखा जाता था। तीसरी अवस्था में यहां अधिकांश थूप (Thoop) उल्लेख भी हुआ है,  जो वैदिक कर्मकांड से संबंधित है । वस्तुतः सही स्तूप का संबंध भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद ही होता है और उसको धार्मिक मान्यता प्राप्त हुई ।जिसे आज हम उसका विशेष स्वरुप देख सकते।


एक समय पूरा भारत बौद्ध मय था। गैर श्रमण व्यवस्था ने अनेक अपने देवी देवता का संबंध भगवान बुद्ध जोड़ दिया था। ताकि समाज में सम्मान प्राप्त हो सके ।इस प्रकार के अनेक देवताओं का उल्लेख मिलता है जो भगवान बुद्ध  की सेवा से संबंधित हैं । सही मायने में बुद्ध ही जगत के नाथ है। पर यहां अलग है।


12 वी शती में सायान ने टीका लिखी । जिसमें उन्होंने बताया कि ऋगवेद को लेकर दक्षिण कोरिया का पुरात्विक विभाग और एशियाटिक सोसायटी ऑफ दक्षिण कोरिया का मत है कि वेद सम्राट अशोक के आदर्शों को चुराकर उन्नत किये गए।