◆ स्त्री आंदोलन के अग्रदूत टीपू सुल्तान
◆ अंग्रेजों को दांतो तले उंगली दबाने को मजबूर करने वाले टीपू सुल्तान
◆ सभी धर्मों को समान नजरिए से देखने वाले टीपू सुल्तान
युवा काफिला,भोपाल-
भारत का इतिहास सदैव एक ऐसे शासक वर्ग द्वारा लिखा जाता रहा हैं जो हमेशा शासन करता है । उसे जो ठीक लगता वह उसे लिख देता और जो उसके नजरों में गलत लगता उसे विलेन बना देता। भारतीय इतिहास की पाठ्य पुस्तकों में टीपू सुल्तान को भी वह स्थान नहीं मिला जो अकबर या दूसरे मुगल शासकों को प्राप्त हुआ है। उस काल और समय की घटनाओं के तुलनात्मक परिप्रेक्ष्य में इतिहास के दो पात्रों का मूल्यांकन इतिहासकार किस आधार पर करते यह समझ से परे है।
18 वीं सदी में मैसूर के शासक रहे टीपू सुल्तान का जन्म 20 नवंबर 1750 को हुआ था। कर्नाटक के देवनाहल्ली (यूसुफ़ाबाद) बंगलौर से लगभग 33 किमी. (21 मील) उत्तर में हुआ था। उनका पूरा नाम सुल्तान फतेह अली खान शाहाब था। उनके पिता का नाम हैदर अली और माता का नाम फ़क़रुन्निसा था। उनके पिता हैदर अली मैसूर साम्राज्य के सैनापति थे जो अपनी ताकत से 1761 में मैसूर साम्राज्य के शासक बने ‘टीपू सुल्तान’ के क़ब्र की मिट्टी भी मुझसे और आपसे कहीं ज्यादा ज़िंदा है, इस मिट्टी को हमेशा फ़ख़्र रहेगा कि टीपू जैसा शेर यहाँ पैदा हुआ था। 4 मई को मादर-ए- हिंद का ये अज़ीम बेटा इस वतन की हिफ़ाज़त करते हुए मैदान ए जंग में लड़ते हुए शहीद हुआ था। टीपू की शहादत के बाद ही अंग्रेजों ने कहा था कि ये मुल्क आज से गुलाम हो गया, अब भारत हमारा है।
शेर-ए-मैसूर
टीपू एक कुशल योद्धा थे। उनकी वीरता से प्रभवित होकर उनके पिता हैदर अली ने ही उन्हें शेर-ए-मैसूर के खिताब से नवाजा था। टीपू को आमतौर पर मैसूर के टाइगर के रूप में जाना जाता है और इस जानवर को उन्होंने अपने शासन के प्रतीक के रूप में अपनाया था। एक बार टीपू एक फ्रांसीसी मित्र के साथ जंगल में शिकार कर रहे थे। तब वहां बाघ उनके सामने आ गया, उनकी बंदूक काम नहीं कर पाई और बाघ उनके ऊपर कूद गया और बंदूक जमीन पर गिर गयी। वह बिना डरे, कोशिश करके बंदूक तक पहुंचे, उसे उठाया और बाघ को मार गिराया। तब से उन्हें "मैसूर का टाइगर" नाम से बुलाया जाने लगा।
दो सौ वर्ष भेड़ की तरह जीने से दो दिन शेर की तरह जीना अच्छा है: टीपू सुल्तान
1- भारत के पूर्व राष्ट्रपति एवं महान् वैज्ञानिक डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने टीपू सुल्तान को विश्व का सबसे पहला रॉकेट अविष्कारक बताया था।
लंदन के मशहूर साइंस म्यूजियम में टीपू सुल्तान के रॉकेट रखे हुए हैं। इन रॉकेटों को 18वीं सदी के अंत में अंग्रेज अपने साथ लेते गए थे। कई बार अंग्रेज़ों के छक्के छुड़ा देने वाले टीपू सुल्तान को दुनिया का पहला मिसाइल मैन माना जाता है।
20 सबसे बड़े दुश्मनों की लिस्ट में शामिल
ब्रिटेन की नेशनल आर्मी म्यूजियम ने अंग्रेजी हुकूमत से लोहा लेने वाले 20 सबसे बड़े दुश्मनों की लिस्ट बनाई है। जिसमें केवल दो भारतीय योद्धाओं को ही इसमें जगह दी गई है।
नेशनल आर्मी म्यूजियम के आलेख के अनुसार टीपू सुल्तान अपनी फौज को यूरोपियन तकनीक के साथ ट्रेनिंग देने में विश्वास रखते थे। टीपू विज्ञान और गणित में गहरी रुचि रखते थे और उनके मिसाइल अंग्रेजों के मिसाइल से ज्यादा उन्नत थे, जिनकी मारक क्षमता दो किलोमीटर तक थी।
2- टीपू द्वारा कई युद्धों में हारने के बाद मराठों एवं निजाम ने अंग्रेजों से संधि कर ली थी। ऐसी स्थिति में टीपू ने भी अंग्रेजों से संधि का प्रस्ताव दिया। वैसे अंग्रेजों को भी टीपू की शक्ति का अहसास हो चुका था इसलिए छिपे मन से वे भी संधि चाहते थे। दोनों पक्षों में वार्ता मार्च, 1784 में हुई और इसी के फलस्वरूप 'मंगलौर की संधि' सम्पन्न हुई।
टीपू ने 18 वर्ष की उम्र में अंग्रेजों के विरुद्ध पहला युद्ध जीता था।
3 - 'पालक्काड किला', 'टीपू का किला' नाम से भी प्रसिद्ध है। यह पालक्काड टाउन के मध्य भाग में स्थित है। इसका निर्माण 1766 में किया गया था। यह किला भारतीय पुरातात्त्विक सर्वेक्षण के अंतर्गत संरक्षित स्मारक है।
4- टीपू सुल्तान खुद को नागरिक टीपू कहा करता था।
700 मनुवादी विचारधारा के लोगों खिलाफ लड़कर मूलनिवासी महिलाओं को स्तन ढकने का अधिकार
टीपू एक बहादुर की मौत मरा पर केरल और कुर्ग में उसने जुल्मी पूंजीवाद और कमजोर और वंचित वर्ग पर जुल्म बरपाने वालों पर जमकर जुल्म किया । हालांकि 1791 में अपनी हार के बाद टीपू का हृदय बदला और उसने सभी वर्गों को समान नजरिए से देखा । पर ये कहना मुश्किल है कि उसका दिल बदल गया था या हार के बाद लोगों को मिलाने के लिए ऐसा कर रहा था। ये नहीं साफ़ हो पाता कि वो देश की स्वतंत्रता के लिए लड़ रहा था। थोड़े शेड्स ऑफ़ ग्रे हैं उसके चरित्र में जो ब्राम्हणों की हत्याएं करने का आरोप टीपू सुल्तान पर है वह त्रावणकोर राज्य में है जहाँ का ब्राम्हण राजा एक अय्याश और निरंकुश राजा था और उसने देवदासी परम्परा को शिरोधार्य कर रखा था। जब भी किसी की शादी होती पहले स्त्री सुख ब्राम्हण को ही मिलता। उसके जुल्मों से वहाँ की जनता से छुटकारा दिलाने के लिए टीपू ने उनपर आक्रमण किया और युद्ध में त्रावणकोर की सेना में शामिल ब्राम्हण मारे गये और अंततः राजा को वहाँ की दलित महिलाओं को न्याय देना पड़ा ।
केरल के त्रावणकोर इलाके, खास तौर पर वहां की महिलाओं के लिए 26 जुलाई का दिन बहुत महत्वपूर्ण है। इसी दिन 1859 में वहां के महाराजा ने दलित महिलाओं को शरीर के ऊपरी भाग पर कपड़े पहनने की इजाजत दी। इस परंपरा की चर्चा में खास तौर पर निचली जाति नादर की स्त्रियों का जिक्र होता है क्योंकि अपने वस्त्र पहनने के हक के लिए उन्होंने ही सबसे पहले विरोध जताया और जिनको हक दिलाने के लिए टीपू सुल्तान ने उस राज्य पर आक्रमण किया। दरअसल उस समय न सिर्फ पिछड़ी और दलित बल्कि नंबूदिरी ब्राहमण और क्षत्रिय नायर जैसी जातियों की औरतों पर भी शरीर का ऊपरी हिस्सा ढकने से रोकने के कई नियम थे।
◆ टीपू सुलतान ने दि थी अछूत महिलाओं को स्थन ढकने की अनुमति
नंबूदिरी औरतों को घर के भीतर ऊपरी शरीर को खुला रखना पड़ता था। वे घर से बाहर निकलते समय ही अपना सीना ढक सकती थीं। लेकिन मंदिर में उन्हें ऊपरी वस्त्र खोलकर ही जाना होता था। नायर औरतों को ब्राह्मण पुरुषों के सामने अपना वक्ष खुला रखना होता था।
सबसे बुरी स्थिति दलित औरतों की थी जिन्हें कहीं भी अंगवस्त्र पहनने की मनाही थी। पहनने पर उन्हें सजा भी हो जाती थी। एक घटना बताई जाती है जिसमें एक दलित जाति की महिला अपना सीना ढक कर महल में आई तो रानी अत्तिंगल ने उसके स्तन कटवा देने का आदेश दे डाला।
इस अपमानजनक रिवाज के खिलाफ 19 वीं सदी के शुरू में आवाजें उठनी शुरू हुईं। 18 वीं सदी के अंत और 19 वीं सदी के शुरू में केरल से कई मजदूर, खासकर नादन जाति के लोग, चाय बागानों में काम करने के लिए श्रीलंका चले गए। बेहतर आर्थिक स्थिति, धर्म बदल कर ईसाई बन जाने औऱ यूरोपीय असर की वजह से इनमें जागरूकता ज्यादा थी और ये औरतें अपने शरीर को पूरा ढकने लगी थीं।
धर्म-परिवर्तन करके ईसाई बन जाने वाली नादर महिलाओं ने भी इस प्रगतिशील कदम को अपनाया। इस तरह महिलाएं अक्सर इस सामाजिक प्रतिबंध को अनदेखा कर सम्मानजनक जीवन पाने की कशिश करती रहीं।यह कुलीन मर्दों को बर्दाश्त नहीं हुआ। ऐसी महिलाओं पर हिंसक हमले होने लगे। जो भी इस नियम की अहेलना करती उसे सरे बाजार अपने ऊपरी वस्त्र उतारने को मजबूर किया जाता।
दलित औरतों को छूना न पड़े इसके लिए सवर्ण पुरुष लंबे डंडे के सिरे पर छुरी बांध लेते और किसी महिला को ब्लाउज या कंचुकी पहना देखते तो उसे दूर से ही छुरी से फाड़ देते। यहां तक कि वे औरतों को इस हाल में रस्सी से बांध कर सरे आम पेड़ पर लटका देते ताकि दूसरी औरतें ऐसा करते डरें।
1814 में त्रावणकोर के अंग्रेजों के चमचे दीवान कर्नल मुनरो ने आदेश निकलवाया कि ईसाई नादन और नादर महिलाएं ब्लाउज पहन सकती हैं।
लेकिन इसका कोई फायदा न हुआ। उच्च सवर्ण के पुरुष इस आदेश के बावजूद लगातार महिलाओं को अपनी ताकत और असर के सहारे इस शर्मनाक अवस्था की ओर धकेलते रहे।आठ साल बाद फिर ऐसा ही आदेश निकाला गया। एक तरफ शर्मनाक स्थिति से उबरने की चेतना का जागना और दूसरी तरफ समर्थन में अंग्रेजी सरकार का आदेश। और ज्यादा महिलाओं ने शालीन कपड़े पहनने शुरू कर दिए। इधर उच्च वर्ग के पुरुषों का प्रतिरोध भी उतना ही तीखा हो गया। एक घटना बताई जाती है कि नादर ईसाई महिलाओं का एक दल निचली अदालत में ऐसे ही एक मामले में गवाही देने पहुंचा। उन्हें दीवान मुनरो की आंखों के सामने अदालत के दरवाजे पर अपने अंग वस्त्र उतार कर रख देने पड़े। तभी वे भीतर जा पाईं। संघर्ष लगातार बढ़ रहा था और उसका हिंसक प्रतिरोध भी।सवर्णों के अलावा राजा खुद भी परंपरा निभाने के पक्ष में था। क्यों न होता ? आदेश था कि महल से मंदिर तक राजा की सवारी निकले तो रास्ते पर दोनों ओर नीची दलित जातियों की अर्धनग्न कुंवारी महिलाएं फूल बरसाती हुई खड़ी रहें। उस रास्ते के घरों के छज्जों पर भी राजा के स्वागत में औरतों को ख़ड़ा रखा जाता था। राजा और उसके काफिले के सभी पुरुष इन दृष्यों का भरपूर आनंद लेते थे।
आखिर 1829 में इस मामले में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया।सवर्ण पुरुषों की लगातार नाराजगी के कारण राजा ने आदेश निकलवा दिया कि किसी भी दलित जाति की औरत अपने शरीर का ऊपरी हिस्सा ढक नहीं सकती। अब तक ईसाई औरतों को जो थोड़ा समर्थन दीवान के आदेशों से मिल रहा था, वह भी खत्म हो गया। अब हिंदू-ईसाई सभी वंचित महिलाएं एक हो गईं और उनके विरोध की ताकत बढ़ गई। सभी जगह महिलाएं पूरे कपड़ों में बाहर निकलने लगीं। इस पूरे आंदोलन का सीधा संबंध भारत की आजादी की लड़ाई के इतिहास से भी है।
◆ टीपू सुलतान ने दि थी अछूत महिलाओं को स्थन ढकने की अनुमति
टीपू सुल्तान ने इसी अन्याय को समाप्त करने के लिए त्रावणकोर पर आक्रमण किया जिससे त्रावणकोर की सेना के तमाम लोग मारे गये जिसे आज ब्राम्हणों के वध के रूप में बताकर उनका विरोध किया जा रहा है उसी युद्व में विरोधियों ने ऊंची जातियों के लोगों दुकानों और सामान को लूटना शुरू कर दिया। राज्य में शांति पूरी तरह भंग हो गई।
दूसरी तरफ नारायण गुरु और अन्य सामाजिक, धार्मिक गुरुओं ने भी इस सामाजिक रूढ़ि का विरोध किया और अंतत 26 जुलाई 1859 को वहाँ के राजा ने दलित औरतों को स्तन ढकने की अनुमति प्रदान की ।टीपू सुल्तान से वही खीज आज निकाली जा रही है ।
ज़रा सोचिएगा कि त्रावणकोर का राजा कोई मुस्लिम होता और दलितों के साथ ऐसा व्यवहार होता तो आज क्या स्थिति होती और यदि टीपू कोई दीपू होते तो????
टीपू सुलतान ने दि थी अछूत महिलाओं को स्थन ढकने की अनुमति, वही खीज आज निकाली जा रही है ।
टीपू सुल्तान और स्त्री स्वतंत्रता
कोई भी राजा हो क्या वह अन्याय इसलिए ना देखे और दंड ना दे कि यह अन्यायी उसके धर्म का नहीं और इस कारण से भविष्य में उस पर अन्य धर्मों के उपर किये अत्याचार के लिए गालियाँ दी जाएंगी ?
शेर-ए-मैसूर के नाम से जिसने भेड़ों की तरह सौ साल जीने के बजाय शेर की तरह एक दिन जीने का रास्ता चुना या हिंदुओं और ईसाइयों पर जुल्म ढाने वाले क्रूर मुस्लिम शासक की तरह।
टीपू सुल्तान से कांपता था अंग्रेजी शासन
भारत में अंग्रेजी साम्राज्य की स्थापना के प्रारम्भिक दौर में लार्ड कार्नवालिस और लार्ड वैल्जली जैसे प्रशासकों के छक्के छुड़ा देने वाला टीपू सुल्तान ही थी। उनकी ऊंगली भारत के नक्शे पर घूमते घूमते मैसूर राज्य पर आकर अटक जाया करती थी। लार्ड कार्नवालिस ने मैसूर राज्य को जीतने का संकल्प लिया था। लार्ड वेलेजली ने तो भारत आने से पहले ही ‘केप ऑफ गुड होप’ में इस बात की शपथ ली
थी कि भारत पहुंच कर सबसे पहले मैसूर राज्य पूरी तरह समाप्त कर दूंगा।
सुल्तान ने भोजन का पहला ही कौर उठाया था कि उसे खबर मिली कि अत्यन्त विश्वास एवं किले का प्रधान संरक्षक सैयद गफ्फार मारा गया है और अंग्रेज सेना हमला करती हुई किले में घुस आई है, वह खाना छोड़कर दौड़ा। तभी मीर सादिक भी मारा गया। लेकिन मरने से पहले उसने किले के दरवाजे हमेशा के लिए बन्द करवा दिए थे। सुल्तान ने उन्हें खोलने का हुक्म दिया लेकिन पहरेदारों ने हुक्म मानने से इन्कार कर दिया। अब केवल दो ही रास्ते बचे थे। पहले-मुट्ठी भर सैनिकों को साथ लेकर अंग्रेजों से मुकाबला किया जाए, दूसरा-अंग्रेज सैनिकों के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया जाए। टीपू ने पहला रास्ता चुना और तूफान की तरह अंग्रेज सैनिकों पर टूट पड़ा। सीने पर दो गोलियां लगीं, शाही पगड़ी धूल में गिर पड़ी, लेकिन उसकी बन्दूक अभी भी दुश्मनों पर कहर ढा रही थी। अंग-अंग जख्मी हो चुका था।
एक अंग्रेज सैनिक ने इस लालच से कि सुल्तान की कमर में बंधी जड़ाऊ पेटी छीन ली जाए, उसका घुटना उड़ा दिया। उसी समय कहीं से आकर एक गोली सुल्तान की कंपनी में लगी और उसके प्राण पखेरू उड़ गए। लेकिन हाथ में पकड़ी हई तलवार हाथ से छूटकर नीचे नहीं गिरी। कहते हैं टीपू सुल्तान के मृत शरीर से तलवार पर कसा हुआ उसके हाथ का शिकंजा ढीला नहीं हुआ था। मीर हुसैन अली खां किरमानी के अनुसार सुल्तान की मृत्यु के बाद श्रीरंगपट्टम महल में जो कत्ल, लूट और बलात्कार हुए उसका वर्णन करना नामुमकिन है। अंग्रेजों के रास्ते की चट्टान दूर हो गई। रियासते मैसूर अंग्रेजों ने फतह कर ली और इस प्रकार एक के बाद एक राज्य हड़पने की विदेश नीति कामयाब होती गई। इसमें सन्देह नहीं कि उस दौर में टीपू सुल्तान जैसा बहादुर और दिलेर शासक दूसरा नहीं था।