संथाल के महानायक / आजादी की पहली लड़ाई से पहले ही सिदो-कान्हू ने फूंका था जमींदारों के खिलाफ बगावत का बिगुल

◆ सिदो व कान्हो मुर्मू ने संथाल विद्रोह का नारा था करो या मरो अंग्रेजो हमारी माटी छोड़ो


◆ सिदो-कान्हू ने 1855-56 मे ब्रिटिश सत्ता, साहुकारो, जमींदारों व व्यपारियों के अन्याय व अत्याचारों के खिलाफ विद्रोह कि हुंकार भरी, जिसे आज संथाल विद्रोह या हूल आंदोलन के नाम से जाना जाता है



 ◆ सिदो ने अपनी प्राकृतिक शक्तियों का हवाला देते हुए सभी मांझीयों को साल वृक्ष की टहनी (विद्रोह का निमंत्रण) भेजकर संथाल हुल में शामिल होने के लिए आमंत्रण भेजा। 
◆ 30 जून 1855 को भेगनाडीह में संथालो आदिवासी की एक सभा हुई जिसमें 400 गांवों के 50,000 संथाल जन एकत्रित हुए
◆ 60 हजार संथाल तीर-धनुष से लैस होकर महाजनों और जमींदारों पर हमला करने निकल पड़े। गुलामी के प्रतीक साहूकारों के दस्तावेजों को जला डाला


◆ रेल्वे स्टेशन, पुलिस चौकी और डाक ढोने वाली गाड़ियां जला दी गई 


◆ संथालों के खौफ के परिणामस्वरूप अंग्रेजों ने मार्टिलो टावर का निर्माण करवाया जो आज पाकुड़ जिले में हैं। 


◆ संथालों के विद्रोह को तकनीकी हथियारों के दम पर कुचल दिया गया 


◆ सिदो-कान्हू को फांसी हुई



युवा काफिला, भोपाल- 


सिधु यह शब्द सिंधु का अपभ्रंश मात्र हैं। आज से 6000 वर्षो पुरानी सभ्यता में विकास का क्रम चलता रहा। प्राचीन समय में संथाल परगना को पहले जंगल तराई के नाम से जाना जाता था। वैसे तो संथाली लोगों ने मानव सभ्यता के क्रम को विकसित किया लेकिन संथाल आदिवासी लोग संथाल परगना क्षेत्र में 1790 ई0 से 1810 ई0 के बीच  बसे। संथाल परगना को अंग्रेजो द्वारा दामिन-ए - कोह कहा गया और इसकी घोषणा 1824 को हुई और इसी संथाल परगाना में संथाल आदिवासी परिवार में जन्मे वीर और बहादुर भाई, जिन्हें हम आज सिदो-कान्हू मुर्मू के नाम से जानते हैं जिसने अंग्रेजो के आधुनिक हथियारों को अपने तीर धनुष और बुद्धिमत्ता के दम पर झुकने पर मजबूर कर दिया।


सिदो-कान्हू मुर्मू का जन्म भोगनाडीह नामक गाँव में एक संथाल आदिवासी परिवार में हुआ था। जो वर्तमान में झारखण्ड के साहेबगंज जिला के बरहेट प्रखंड में है। सिदो मुर्मू का जन्म 1815 ई0 में हुआ था एवं कान्हू मुर्मू का जन्म 1820 ई0 में हुआ था।


पारिवारिक पृष्ठभूमि


संथाल विद्रोह में सक्रिय भूमिका निभाने वाले इनके और दो भाई भी थे जिनका नाम चाँद मुर्मू और भैरव मुर्मू था। चाँद का जन्म 1825 ई0 में एवं भैरव का जन्म 1835 ई0 में हुआ था। इनके अलावा इनकि दो बहने भी थी जिनका नाम फुलो मुर्मू एवं झानो मुर्मू था। इन 6 भाई-बहनो का पिता का नाम चुन्नी माँझी था।


सिदो-कान्हू ने 1855-56 मे ब्रिटिश सत्ता, साहुकारो,जमींदारों व व्यपारियों के अन्याय व अत्याचारों के खिलाफ विद्रोह कि हुंकार भरी, जिसे आज संथाल विद्रोह या हूल आंदोलन के नाम से जाना जाता है। 
संथाल विद्रोह का नारा था करो या मरो अंग्रेजो हमारी माटी छोड़ो ।


सिदो ने अपनी प्राकृतिक शक्तियों का हवाला देते हुए सभी मांझीयों को साल (वृक्ष) की टहनी भेजकर संथाल हुल में शामिल होने के लिए आमंत्रण भेजा। 30 जून 1855 को भेगनाडीह में संथालो आदिवासी की एक सभा हुई जिसमें 400 गांवों के 50,000 संथाल जन एकत्रित हुए।


कार्ल मार्क्स कहिन
कार्ल मार्क्स ने संथाल विद्रोह को ‘भारत का प्रथम जनक्रांति’ विद्रोह कहा था। आज भी झारखंड सरकार 30 जून को भोगनाडीह में हूल दिवस पर विकास मेला लगाया जाता है एवं वीर शहीदों सिदो-कान्हू को याद किया जाता है।


जिसमें सिदो को राजा, कान्हू को मंत्री, चाँद को मंत्री एवं भैरव को सेनापति चुना गया। संथाल विद्रोह भोगनाडीह से शुरू हुआ जिसमें संथाल तीर-धनुष से लेस अपने दुश्मनो पर टुट पड़े।



जबकि अंग्रेजो मे इसका नेतृत्व जनरल लॉयर्ड ने किया जो आधुनिक हथियार और गोला बारूद से परिपूर्ण थे इस मुठभेड़ में महेश  लाल एवं प्रताप नारायण नामक दरोगा कि हत्या कर दि गई इससे अंग्रेजो में भय का माहौल बन गया।


संथालो के भय से अंग्रेजो ने बचने के लिए पाकुड़ में मार्टिलो टावर का निर्माण कराया गया था जो आज भी झारखंड के पाकुड़ जिले में स्थित है। अंततः इस मुठभेड़ में संथालो कि हार हुई और सिदो-कान्हू  को फांसी दे दी गई। 


मृत्यु
इस भयंकर मुठभेड़ में संथालो हार हुई क्योंकि ये लोग तीर धनुष से लड़ रहे थे जबकि अंग्रेजो के पास आधुनिक तकनीक से युक्त हथियार थे। सिदो को अगस्त 1855 में पकड़कर पंचकठिया नामक जगह पर बरगद के पेड़ पर फांसी दे दि गई वह पेड़ आज भी पंचकठिया में स्थित है  जिसे शहीद स्मारक स्थल कहा जाता है।


जबकि कान्हू को भोगनाडीह में फांसी दे दी गई पर आज भी वह संथालो के दिलो में आज भी जिन्दा है एवं याद किए जाते है। संथालो के इस हार पर भी अंग्रेजी हुकूमत को जड़ से हिला कर रख दिया था।