◆त्रिगुणी पावन पूर्णिमा (वैशाख पूर्णिमा)
◆ सिद्धार्थ का जन्म - लुम्बिनी
◆ सिद्धार्थ को ज्ञान प्राप्ति - बोधगया
◆ महाकारुणिक बुध्द का महापरिनिर्वाण - कुशीनगर
युवा काफिला, भोपाल-
भारत के लोगों पर प्रकृति का वरद हस्त रहा है। इस कारण उन्हें ईश्वर की आवश्यकता का अनुभव ही नहीं होता। बौद्ध और जैन मत अनीश्वरवादी मत हैं। यह मनुष्य के मानवीय पक्ष को इतना ऊपर उठाने में विश्वास करते हैं कि उन्हें ईश्वर की आवश्यकता ही अनुभव नहीं होती। बौद्ध धम्म में 'निर्वाण' और जैन मत में 'केवल्य' वह उच्च स्थिति हैं, जिसे मानव प्राप्त कर सकता है। बौद्ध मत भारत की मिट्टी से उपजा होने के कारण बौद्ध लोगों की निष्ठा कभी देश से बाहर नहीं हो सकती, जबकि बाकी मजहबों के साथ ऐसा नहीं है।
गोतम बुध्द विश्व के एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जिनके उपदेशों को एक भाषा का नाम मिला । पाली विश्व की समृद्धिशील भाषा है और पाली संज्ञा बुद्ध वचनों को प्राप्त हुई है। नृवैज्ञानिकों ने बताया कि भारत में सबसे पहले नेग्रिटो प्रजाति का पता चलता है। नेग्रिटो के बाद आस्ट्रिको को प्राचीन माना गया। आस्ट्रिको के बाद किरात लोगों को प्राचीन माना जाता हैं। इनके बाद द्रविड़ प्राचीनतम हैं और अंत में आर्य ।
जो सभ्यता जिनकी सांसो में बसी हैं, उस सभ्यता का बेहतर इतिहास वहीं लिख सकते हैं। बौद्ध धम्म वास्तव में धर्म नहीं,सभ्यता हैं। खान-पान, रहन-सहन और जीवन जीने की समूची प्रणाली हैं। इसमें आचरण पर बल दिया जाता हैं।
भारत में मूलनिवासी आंदोलनों का आदि में स्त्रोत भाषा प्रजाति की परी संकल्पना ही है और ऐसे वैज्ञानिकों तथा ठोस तथ्यों पर आधारित परीसंकल्पना को आर्यवादी इतिहासकार इसलिए खत्म कर रहे हैं ताकि मूलनिवासी की अवधारणा जड़ से खत्म हो जाए।
सिंधुघाटी की सभ्यता की खुदाई (2014) से प्राप्त और हड़प्पा डॉट कॉम पर मौजूद बतौर रजनीकांत के द्वारा उपलब्ध कराई गई ये तस्वीर स्तूप जैसी नहीं, स्तूप ही हैं महाराज ।कबीर कहते हैं-
तू कहता कागद की लेखी।
मैं कहता आंखन की देखी।।
वास्तव में गोतम बुद्ध बौद्ध धर्म के संस्थापक नहीं, प्रवर्तक थे । प्रवर्तक की हैसियत से उन्होंने बौद्ध धर्म में कुछ जोड़ा अर्थात प्रवर्तित किया ।
भाषाविद डॉ राजेन्द्र प्रसाद सिंह की पुस्तक इतिहास का मुआयना के अनुसार -
गोतम बुद्ध ने आर्य सत्य की स्थापना की नहीं की उन्होंने तो इसिपत्तन मृगदाय में धम्म-चक्क का प्रवर्तन किया और चार अरीय-सच्च का प्रतिपादन किया। अरीय सच्च का भाष्यकारों ने गलत अर्थ निकाल लिया और गलती से आर्य सत्य कर दिया। अरीय का अर्थ होता हैं -चक्क (चक्र) और अरि का - आरे वाला ।
अतः अरिय-सच्च का वास्तविक अर्थ है- धम्म चक्क से जुड़ा हुआ सत्य (सत्य), आर्य से जुड़ा हुआ नहीं। भारत में कुल गोतम बुद्ध के पहले के 27 बुध्द हुए हैं। बौद्ध सभ्यता मुख्यतः कास्य युगीन है
सिंधु घाटी की सभ्यता के समकालीन थीं बौद्ध सभ्यता
इतिहासकार एस.के. विश्वास ने याद दिलाया कि बुद्ध अपने वस्त्र को बाएं कंधे पर रखते थे जबकि दाया कंधा मुक्त होता था यह पोशाक विन्यास मोहनजोदड़ो की है ।
सिंधु घाटी के धम्मचक्र में छह आरे हैं। एक भी आरे का फर्क नहीं पड़ेगा । नीचे की तस्वीर में गिन कर देख लीजिए जबकि गोतम बुद्ध के धम्म चक्र में आठ आ रहे हैं।
गोतम बुद्ध द्वारा धम्मचक्र में दो आरो को जोड़ना प्रवर्तन है।यही अरिय-सच्च है जिसे गलती से आर्य सत्य बताया जाता हैं।
हिंदू पैदा तो हुआ हूं, लेकिन हिंदू मरूंगा नहीं
13 अक्टूबर 1935 को येवला (नाशिक) में की गई ऐतिहासिक धर्मांतरण की घोषणा की । 1935 से 1956 तक कुल 21 वर्षों तक की उनकी यात्रा इसी ओर संकेत करती है की उन्होंने इटली के भिक्खु सालाडोर सहित अनेक बौद्ध भिक्खुओं से चर्चा की। रैशनलिस्ट एसोसिएशन, मद्रास के कार्यक्रम में उन्होेंने 1944 में ‘बौद्ध धर्म और ब्राह्मण धर्म’ विषय पर भाषण दिया। 1948 में अपने प्रसिद्ध एवं बहुचर्चित ग्रंथ ‘हू वर शूद्राज’ में उन्होेंने भगवान बुद्ध को भी शूद्र बताया। वैसेे भाषा वैज्ञानिकों की माने तो संताली, मुंडारी और कोलो की भाषाएंं एक जैसी है । आप इन भाषाओं का शब्दकोश देख लीजिए सीधे-सीधे गोतम शब्द मिलेगा । गोतम का अर्थ घी होता है कहीं-कहीं बंगला प्रभाव से गोतोम भी है।
घी, दूध, दधि के आधार पर नामकरण करने की परंपरा प्राचीन है और आज तक यह चली आ रही है । संस्कृत में भी, लोक में भी - संस्कृत में घृतप्रस्थ, दधिवाहन, नवनीत कुमार और लोक में मक्खन सिंह दूधनराम, राबड़ी देवी आदि।
जनवरी 1950 में डॉ आंबेडकर ने बुद्ध जयंती सार्वजनिक रूप से मनायी। 1950 में महाबोधि सोसायटी के मुखपत्र में उन्होंने बौद्ध धर्म के बारे में अपने विचार व्यक्त किये। 5 मई, 1950 को ‘जनता’ समाचार पत्र में उन्होंने बौद्ध धर्म के प्रति अपने झुकाव को अधिकृत रूप से घोषित किया।
इसी माह में श्रीलंका में आयोजित बौद्ध धम्म परिषद में वे निरीक्षक के नाते उपस्थित रहे तथा अस्पृश्यों को बौद्ध मत ग्रहण करने का आह्नान किया। 1950 में ही बाबा साहेब बौद्ध धर्म के प्रति आकर्षित हुए और बौद्ध सम्मेलन में भाग लेने सीलोन (श्रीलंका) गए।
देश में छुआछूत चरम पर था उन्होंने कानूनी और सामाजिक आंदोलन के माध्यम से देश में छुआछूत को खत्म करने का दृढ़ संकल्प लिया। वे मानते थे कि कानून में बदलाव लाकर ही दिल और दिमाग में बदलाव संभव है। उनके बौद्ध धर्म अपनाने के पीछे बौद्ध धर्म में छुआछूत और जाति प्रथा जैसी कुरीति का न होना था।
जुलाई 1950 में वरली में बुद्ध विहार के उद्धाटन के समय उन्होंने अपना शेष जीवन महाकारुणिक बुद्ध की सेवा में समर्पित करने की घोषणा की। 1954 में विश्व बौद्ध परिषद के तृतीय अधिवेशन में में रंगून (बर्मा) गये। वहां उन्होंने श्रीलंका और बर्मा के अपने अनुभव के आधार पर बौद्ध धर्म में ऊपरी तामझाम और समारोहप्रियता की आलोचना की।
1955 में उन्होंने मुंबई में ‘भारतीय बौद्ध जनसभा’ की स्थापना की। दीक्षा लेने के बाद इस संस्था का नाम ‘भारतीय बौद्ध महासभा’ हो गया। मार्च 1956 में बौद्ध सभ्यता के महान ग्रंथ 'त्रिपिटक' पर आधारित ‘दि बुद्ध एंड हिज धम्म’ (बुध्द और उनका धम्म) नामक ग्रंथ प्रकाशित हुआ। मई 1956 में बी.बी.सी लंदन से उनका बौद्ध धम्म पर व्याख्यान प्रसारित हुआ।
मार्गदाता बुद्ध
बुद्ध ने कभी नहीं कहा कि मैं मुक्तिदाता हूं। डॉ. आंबेडकर लिखते हैं कि-
‘बुद्ध ने एक मानव के रूप में जन्म लिया और वे एक साधारण मनुष्य के जैसे 10 माह मां के गर्भ में पले। एक साधारण व्यक्ति के रूप में अपने धम्म का प्रचार 45 वर्षो तक करते । उन्होंने कभी कोई चमत्कार नहीं दिखाया उ और न किसी अलौकिक शक्ति का दावा नहीं किया। बुद्ध ने मार्ग-दाता और मुक्ति-दाता में स्पष्ट भेद किया।'
‘बुद्ध ने ‘महापरिनिर्वाण-सूत्र’ में भिक्खु आनंद थेर को बताया कि उनका धम्म तर्क और अनुभव पर आधारित है।’ बुद्ध ने यह भी कहा है कि उनके अनुयायियों को उनकी शिक्षा को केवल इसीलिए सही और जरूरी नहीं मान लेना चाहिए कि यह बुद्ध की दी गई शिक्षा है। यदि कोई बात किसी समय पर किसी अनुयायी को तर्कसंगत या बुद्धि संगत गलत लगती है तो उसे उसको नहीं मानना चाहिए।
‘बुद्ध एंड फ्यूचर ऑफ हिज रिलिजन’ शीर्षक के अपने इसी लेख में डॉ. आंबेडकर का कहना है कि धर्म को विज्ञान और तर्क की कसौटी पर खरा उतरना चाहिए। बुद्ध ने अहिंसा के साथ ही समानता की शिक्षा दी. न केवल पुरुष और पुरुष के बीच समानता, बल्कि पुरुष और स्त्री के बीच समानता की भी’।
वर्ण व्यवस्था का सिद्धान्त असमानता के सिद्धान्त पर आधारित हैं। 'बुद्ध' चातुर्वण्य के विरोधी थे। उन्होंने न केवल इसके विरुद्ध प्रचार किया बल्कि इसके विरुद्ध लड़ाई भी लड़ी।
हिंदू पैदा तो हुआ हूं, लेकिन हिंदू मरूंगा नहीं
डॉ आंबेडकर जिस ताकत के साथ दलितों को उनका हक दिलाने के लिए उन्हें एकजुट करने और राजनीतिक-सामाजिक रूप से उन्हें सशक्त बनाने में जुटे थे, उतनी ही ताकत के साथ उनके विरोधी भी उन्हें रोकने के लिए जोर लगा रहे थे। लंबे संघर्ष के बाद जब डॉ आंबेडकर को भरोसा हो गया कि वे हिंदू धर्म से जातिप्रथा और छुआ-छूत की कुरीतियां दूर नहीं कर पा रहे तो उन्होंने वो ऐतिहासिक वक्तव्य दिया जिसमें उन्होंने कहा कि मैं हिंदू पैदा तो हुआ हूं, लेकिन हिंदू मरूंगा नहीं।
धर्मांतरण
डा बाबा साहेब आंबेडकर ने भारत के प्राचीन सभ्यता को जाना और न केवल जाना बल्कि उसे जीवन में आचरण में भी लाया। बाबा साहेब कहते हैं - जिन लोगों ने बौद्ध धम्म के संबंध में इस देश के प्राचीनकाल के इतिहास का अध्ययन किया है । उन्हें मालूम है कि बुद्ध के धम्म को फैलाने का महान श्रेय नाग जाति के लोगों को जाता है । नाग लोग आर्यों के कट्टर शत्रु थे । आर्य और अनार्य में आपस में कई बड़ी- बड़ी लड़ाइयां लड़ी गई । आर्य लोग नाग लोगों का समूल नाश करना चाहते थे । इस विषय में बहुत सी कहानियां मिलती है। अर्जुन ने नागों को जलाया। अगस्त मुनि ने एक सर्प कन्या के रक्षा की। उसी नाग के वंशज आप लोग हैं। जिन नामों को छल और कपट से पति बनाया गया, उन्हें उठाने के लिए एक महापुरुष की आवश्यकता थी और वह बुद्ध के रूप में हमें मिले ।
नागों ने ही संपूर्ण भारत में बौद्ध धर्म का प्रचार प्रसार किया। आप उन्हीं नागों की संतान हैं। वीर नागों की प्रमुख आबादी नागपुर में थी । नागों की आबादी के कारण इस नगर को नागपुर कहा गया है। इस नागपुर से 27 मील की दूरी पर बहने वाली नदी का नाम भी नाग नदी है । इससे यह प्रतीत होता है कि इसी नदी के आसपास नागों की बड़ी आबादी थी। नागपुर को इस महान समारोह के लिए चुने जाने का यथार्थ में यही कारण है, दूसरा कोई कारण इसके पीछे नहीं है । इसलिए इसे कोई गलत ना समझे कि किसी और बात पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ विरोध संभव है लेकिन इस स्थान को किसी ने भी उन को चिढ़ाने के लिए पसंद नहीं किया है।
बौद्ध धम्म में “वापस लौटने” के मौके पर 14 अक्टूबर 1956 को अपने 14 लाख अनुयायियों के लिए 22 प्रतिज्ञाएँ निर्धारित कीं। उन्होंने इन शपथों को निर्धारित किया ताकि हिंदू धर्म के बंधनों को पूरी तरह पृथक किया जा सके। ये 22 प्रतिज्ञाएँ हिंदू मान्यताओं और पद्धतियों की जड़ों पर गहरा आघात करती हैं। डॉ आंबेडकर ने बौद्ध महास्थविर भिक्खु चंद्रमणि के नेतृत्व में बौद्ध धम्म की दीक्षा ली और वे अपने लाखों अनुयायियों के साथ बुद्ध बने।
जाति उन्मूलन यदि जाति पर फ़ोकस करने से होता तो कब का हो चुका होता। धर्म पर फ़ोकस कीजिये, यही बाबा साहेब की अंतिम सीख है।