जयंती विशेष/सामाजिक चेतना के क्रांतिकारी महामानव महात्मा ज्योतिबा फुले की 193वीं जयंती पर विशेष : डॉ सूर्या बाली “सूरज धुर्वे” 

जन्मदिन विशेष - 


जन्म-
ज्योतिराव गोविंदराव फुले एक महान विचारक, समाजसेवी, लेखक, दार्शनिक तथा क्रान्तिकारी व्यक्ति थे। आपको 'महात्मा फुले' एवं 'ज्‍योतिबा फुले' के नाम से भी जाना जाता है। आपका जन्म आज के ही दिन यानि 11 अप्रैल 1827 को पुणे जिले के खानवाडी नामक स्थान में हुआ था। इनके पिता का नाम गोविंद राव फुले और माता का नाम चिमना बाई फुले था। जब ज्योतिराव एक वर्ष के ही थे तभी इनकी माँ का स्वर्गवास हो गया था जिसके कारण इनका लालन पालन एक गरीब आया द्वारा किया गया। आपका जन्म एक माली परिवार में हुआ था जिसका पुश्तैनी काम फूलों का धंधा था । माली जाति में जन्मे फुले ने गैर ब्राह्मणों में शिक्षा के प्रचार और प्रसार के लिए बेहतरीन काम किया। 
इनके दादा और पिताजी सतारा से पुणे आए थे। इसके पीछे भी एक विशेष कारण था। किसी जातीय बाद विवाद में इनके दादा ने किसी कुलकर्णी ब्राह्मण को जान से मार दिया था और फिर बदनामी से बचने के लिए इनके पिता पूरा परिवार लेकर सतारा से पुणे आ गए थे।


बचपन एवं शिक्षा-


ज्योतिराव का बचपन बड़ी गरीबी और मेहनत में गुजरा था। वे फूलों के व्यापार में  और खेती में अपने पिता जी का हाथ बताया करते थे। बचपन से ही ज्योतिराव पढ़ने लिखने में अव्वल थे और रोज स्कूल जाते थे। उनकी शिक्षा के प्रति लगन को देख कर उनके आस पास के ब्राह्मणों ने उनके पिता को भड़काया और कहा कि इस को पढ़ा लिखाकर क्या करोगे ? ज्यादा पढ़ाओगे तो ये लड़का हाथ से निकाल जाएगा। कुछ कक्षा तक ही मराठी में पढ़ाई कर पाये थे कि उनके पिता ने उनकी पढ़ाई छुड़वाकर फूलों के धंधे में लगा दिया। । इनकी प्रारम्भिक शिक्षा तो प्राथमिक विद्यालय में मराठी माध्यम से हुई थी लेकिन बाद में स्कॉटिश मिशन हाई स्कूल पुणे से अङ्ग्रेज़ी माध्यम से मैट्रिक परीक्षा पास की। 
काफी दिनों तक इन्हें पढ़ाई और स्कूल से दूर रखा गया लेकिन एक दिन एक मुस्लिम अध्यापक ने इनके पिता को समझाया और इनको फिर से स्कूल भेजने के लिए इनके पिता पर दबाव बनाया आखिर ज्योतिराव फिर से स्कूल जाने लगे और 21 साल की उम्र में मैट्रिक की परीक्षा पास की। 


विवाह-
उस समय हिन्दुओ में बाल विवाह की प्रथा आम थी इसलिए ज्योतिराव का विवाह भी मात्र 13 साल की उम्र में सन 1840 में सावित्रीबाई फुले से हो गया। हालांकि ज्योतिराव खुद ज़्यादा पढ़ लिख नहीं पाये लेकिन उन्होने अपनी पत्नी के साथ मिलकर जो शिक्षा की ज्योति जलायी वह आजतक रौशन है और हजारों लाखों लोगों को आज भी रौशनी देकर राह दिखा रही है। सुहागरात के दिन इन्होने अपनी पत्नी को पढ़ने लिखने की समाग्री भेंट की और सावित्री बाई को पढ़ने और पढ़ाने के लिए तैयार किया और इस तरह सावित्री बाई फुले इनकी पहली छात्रा बनी। 


सावित्री के प्रथम शिक्षक तथा प्रथम विद्यालय- 
जब सावित्री बाई को अच्छी तरह से पढ़ना लिखना आ गया तब उन्होने सावित्री बाई से अन्य सूद्रों को पढ़ाने लिखाने का वचन लिया और पुणे में ही एक छोटा सा स्कूल खोला और उसमे अपनी पत्नी सावित्री बाई फुले को  पहला अध्यापक नियुक्त किया। अब इस बात से ब्राह्मणों को बहुत मिर्ची लगी और वे कुछ ज्यादा ही जलने लगे। एक बार फिर से ब्राह्मणों से उनके पिता को भड़काया जिससे उनके पिता ने स्कूल बंद करने के लिए दबाव बनाया लेकिन ज्योतिबा फुले पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और न ही उनका इरादा बदला। इससे उनके पिता ने उन्हे घर से निकल जाने की धमकी दी जिससे फलस्वरूप वे अपनी पत्नी सावित्री बाई को लेकर अपने पिता के घर से निकाल गए और कुछ अन्य मित्रों की मदद से एक नया जीवन शुरू किए और सन 1858 में एक नए विध्यालय की शुरुवात की। 
सन 1848 को पशुओं के एक छोटे से बाड़े में इन्होने बच्चों को पढ़ने के लिए जिस स्कूल की शुरुआत की थी उसमे लोग अपने बच्चों को छुप छुप कर पढ़ने भेजते थे। जब उस स्कूल में सावित्री बाई पढ़ाने के लिए जाती थीं तो पुणे के ब्राह्मणों द्वारा उन्हे तिरस्कृत और अपमानित किया जाता था और यहाँ तक की उनके ऊपर कीचड़ और गोबर फेंका जाता था जिससे कारण उनहों अपनी पत्नी को एक अतिरिक्त साड़ी लेकर स्कूल भेजते थे जिससे वो स्कूल के अंदर जाकर बदलती थी क्यूंकी गोबर और कीचड़ के कारण जो साड़ी पहनकर स्कूल जाती थीं वो गंदी हो जाती थी।


शिक्षा के आंदोलन में फातिमा शेख -


एक और महान मुस्लिम महिला फातिमा शेख ने इनका साथ दिया और इनकी पत्नी सावित्री बाई के साथ मिलकर इनके आंदोलन को सफल बनाया और गैर ब्राह्मण परिवारों के बच्चों में शिक्षा कि ज्योति जलायी। इस तरह एक शुद्र और मुस्लिम महिला ने मिलकर शिक्षा के क्षेत्र में एक साथ मिलकर काम किया । 
महिलाओं व दलितों के उत्थान के लिय इन्होंने अनेक कार्य किए। महात्मा फुले भारतीय समाज में प्रचलित जाति पर आधारित विभाजन और भेदभाव के विरुद्ध थे और सभी के लिए शिक्षा के लिए प्रबल समर्थक थे। 


बालक ज्योतिबा से जातिय दुर्व्यवहार-


एक छोटी सी घटना ने ज्योतिबा के जीवन को बदल कर रख दिया। एक बार वे अपने एक ब्राह्मण दोस्त के साथ उसके विवाह में गए तो किसी अन्य ब्राह्मण ने उन्हे पहचान लिया और उन्हे शादी की बारात से वापस निकल जाने के लिए दबाव बनाया और जातीय भेदभाव वाले शब्दों से अपमानित किया लेकिन किसी ने उनका साथ नहीं दिया यहाँ तक की उनके ब्राह्मण दोस्त ने भी कुछ नहीं कहा। शादी में ब्राह्मणों द्वारा तिरस्कृत और अपमानित किए जाने के कारण ज्योति राव बहुत दुखी हुए और यहीं से उन्होने ब्राह्मणवाद और जातिगत आधारित शिक्षा के खिलाफ मुहिम छेड़ने का निर्णय लिया। 


सत्य शोधक समाज का गठन-
थामस पेन की द्वारा लिखित राइट ऑफ मैन  (मानव के अधिकार ) किताब का ज्योतिबा के जीवन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। धीरे-धीरे ज्योतिबा ने समाज को जागृत करने और समाज में व्याप्त बुराइयों जैसे अशिक्षा, जातिगत भेदभाव, सती प्रथा, महिलाओं के प्रति अन्याय, बाल विवाह आदि के खिलाफ आवाज उठाना शुरू कर दिया और लोगों को आंदोलन में शामिल करने के लिए आह्वान किया। सितम्बर 1873 में इन्होने महाराष्ट्र में सत्य शोधक समाज नामक संस्था का गठन किया।


भारत का पहला विधवा आश्रम-
अपने एक ब्राह्मण मित्र की विधवा बहन का दु:ख देखकर इन्होने सावित्री फुले के साथ मिलकर भारत का पहला विधवा आश्रम बनाया और बोर्ड लगवा दिया कि कोई भी विधवा आकर इस आश्रम में शरण ले सकती है और अगर वो गर्भवती है तो उसकी जचगी का भी ध्यान रखा जाएगा। चूंकि ब्राह्मणों में ही विधवा विवाह नहीं संभव था इसलिए उनके आश्रम में ज़्यादातर विधवा महिलाएं ब्राह्मण परिवारों से ही थीं। इन्ही में एक विधवा ब्राह्मण स्त्री को उसके किसी रिश्तेदार द्वारा ही गर्भवती कर दिया गया था और वो आत्महत्या करने वाली थी तब ज्योतिबा फुले उसे अपने आश्रम ले आए और अपनी पत्नी के साथ मिलकर उसको हौसला और सहारा दिया और उससे बच्चे को खुद पाला और जिसे बाद में उन्होने अपना लिया और अपने नाम दिया यशवंत राव फुले।  उनके इस कार्य से ब्राह्मणों का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया और वे उन्हे मारने के लिए दो तलवारबाजों को भेजे लेकिन ज्योतिबा से प्रभावित होकर दोनों तलवार बाज वापस लौट गए। 


पुणे नगर पालिका का मेयर-
अपनी भजन मंडली बनाकर गाँव-गाँव में जाकर शिक्षा के लिए प्रचार प्रसार करते थे कई सामाजिक टोलियाँ बनाकर लोगों को समझाते थे और जो धीरे धीरे एक सामाजिक आंदोलन का स्वरूप ले लिया।  इनकी लोकप्रियता और शिक्षा के प्रति समर्पण देख कर अंग्रेजों ने इन्हे शुरुआत की पुणे नगर पालिका का मेयर बनाया था जहां इनहों साफ पीने के पानी, साफ सफाई, बिजली बत्ती, सड़क पार्क आदि की समुचित प्रबंध किया और अंग्रेजों के साथ मिलकर समृद्धि भारत की रचना में अपना योगदान दिया। पूरी ज़िंदगी ज्योतिबा मानवता कि सेवा में गुजार दिये। इनकी कोई औलाद नहीं थी इसलिए इन्होने अपने गोद लिए बेटे डॉ यशवंत को आधी संपत्ति देकर शेष आधी संपत्ति को सत्यशोधक समाज के आंदोलन को दे दी। 


कर्मकांड का विरोध-
इन्हे अंग्रेजों की तरफ से बहुत सम्मान मिले और जिसे उन्होने बहुत पैसे और धन मिले जिसे सत्य शोधक समाज को दान कर दिया । इस संगठन के द्वारा जो कर्म कांड का विरोध किया। ब्राह्मणवाद  के खिलाफ जो बिगुल फूंका वो बहुत ही कारगर सार्थक हुआ । आप उनकी निडरता का अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि उन्होंने सनातन हिन्दू ग्रन्थों में व्याप्त बुराइयों का खुलकर विरोध किया और यहा तक कि पूने जैसे ब्राह्मण बाहुल्य क्षेत्र में भी बामन अवतार को “गलीज गैंडा”  और ब्रह्मा को “बेटीचोद” कहा। 


महात्मा की उपाधि-


इनकी समाजसेवा देखकर 1888 ई. में मुंबई की एक विशाल सभा में उन्हें 'महात्मा' की उपाधि दी। ज्योतिबा ने ब्राह्मण-पुरोहित के बिना ही विवाह-संस्कार आरंभ कराया और इसे मुंबई हाईकोर्ट से भी मान्यता मिली। वे बाल-विवाह विरोधी और विधवा-विवाह के समर्थक थे।


प्रकाशित पुस्तकें-


अपने जीवन काल में उन्होंने कई पुस्तकें भी लिखीं जिनमे से कुछ बहुत प्रसिद्ध हुई जैसे -गुलामगिरी, छत्रपति शिवाजी का पौवाड़ा, तृतीय रत्न, राजा भोसला का पौवाड़ा, किसान का कोड़ा, अछूतों की कैफियत इत्यादि।  महात्मा ज्योतिबा फुले व उनके संगठन के संघर्ष के कारण ही सरकार ने ‘एग्रीकल्चर एक्ट’ पास किया।
लगभग 63 वर्ष कि उम्र में 28 नवंबर 1890 के दिन इस महान क्रांतिकारी महापुरुष ने अंतिम सांस ली और अपने पीछे एक ऐसी विरासत छोड़ गए जिससे आने वाली पीढ़ियाँ सदियों तक ऊर्जा और प्रेरणा प्राप्त करती रहेंगी।
ऐसे क्रांतिकारी और महानायक को उनके महा परिनिर्वाण दिवस पर कोटि कोटि नमन।
डॉ सूर्या बाली “सूरज धुर्वे”