एक मुलाक़ात जिसने मेरी ज़िंदगी की धारा ही बदल दी - एक संस्मरण : डॉ. सूरज धुर्वे

◆ एक मुलाक़ात जिसने मेरी ज़िंदगी की धारा ही बदल दी- एक संस्मरण 



मानव जीवन में स्मृतियों और रिश्तों नातों का बड़ा गहरा संबंध होता है। पता नहीं कब कहाँ किससे कौन सा रिश्ता जुड़ जाये कोई नहीं जानता। जब आप किसी चीज की तलाश में भटक रहे हों और कोई ज़रा सी भी उम्मीद दिखा दे तो आप उसके दीवाने बन जाते हैं। जैसे आप मरुस्थल में भटक रहे हों, तेज धूप हो, पसीने से तर बतर हों और अब वापस लौटने के लिए मन बना रहे हों और हिम्मत हार रहे हों तभी आपको एक पेड़ की छांव और और उस मरुस्थल में एक पानी का स्रोत दिख जाये तो सोचिए आपको कैसा अनुभव होगा। आप थोड़ा आराम करके अपनी थकान मिटाकर फिर से तरोताजा होकर अपने सफर पर चल पड़ेंगे।
 
कुछ ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ था। दिन शनिवार, 15 अक्टूबर 2016 को जब मैं अपने कोया पुनेमी खोज में थका हारा और निराश सा हो गया था और लग रहा था कि 15 सालों से इस खोज को अब छोड़ दूँ और फिर से अपने डाक्टरी पेशे में जायदा ध्यान दूँ। तभी मुलाक़ात होती है एक ऐसी शख़्सियत से जिसने मेरे जीने के नज़रिये को ही बदल दिया। मेरी निराशा और उदासीनता का भी एक महत्त्वपूर्ण कारण भी था क्यूंकी अक्टूबर 2015 में दादा मोती रावण कंगाली के असामयिक निधन के बाद मैं काफी टूट गया था क्यूंकि मैं उनसे वैचारिक और व्यक्तिगत रूप से बहुत गहराई से जुड़ गया था। हम दोनों में काफी बनती भी थी और दादा कंगाली से बहुत सारी भविष्य की योजनाएँ मिली थी लेकिन वह साथ महज कुछ वर्षों का ही था और जैसे ही उनसे नज़दीकियाँ बढ़ने लगीं और उनका मार्गदर्शन मिलने लगा वैसे ही पता नहीं किसकी नज़र लगी कि दादा कंगाली हमसे दूर हो गए और कोया पुनेमी मंजिल बहुत दूर लगने लगी थी। इसी बीच एक और महान लेखक, संपादक, पत्रकार, समाजसेवी दादा सुंहेर सिंह ताराम से मुलाक़ात हुई जिसके कारण ज़िंदगी को फिर  से एक मकसद मिल गया। 


चूंकि मैं बचपन से ही एक खोजी प्रकृति का रहा हूँ और आज भी वह प्रकृति मुझमें बहुत प्रबल है। मैं हमेशा “कौन, क्या, कैसे, कहाँ, कब, किसके” के संदर्भ में सोचता हूँ और बिना इन प्रश्नों के उत्तर जाने अपने प्रयास को रोकता नहीं। लेकिन सहसा दादा कंगाली का साथ छूटने के बाद लगा था कि शायद अब कोई नहीं है इस कारवां को उसकी मंजिल तक ले जाने और राह दिखाने के लिए और इसी बीच मेरे जीवन में एक नई आशा की किरण की तरह दादा सुंहेर सिंह ताराम का प्रवेश होता है। यह कोई सोची समझी, या योजनापूर्ण मुलाक़ात नहीं थी बस ये समझिए की बस हो गयी। 


बात शनिवार दिनांक 15 अक्तूबर 2016 की है ।  दादा सुंहेर सिंह ताराम भोपाल के बरखेड़ा पिपलानी में मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित थे और वहाँ पर जंगों लिंगो कार्यक्रम में अपना उदबोधन देने वाले थे। मैं ताराम दादा के बारे में सुन चुका था लेकिन उनसे कभी मेरी मुलाक़ात नहीं हुई थी हाँ उनके चेहरे को बहुत अच्छी तरह से पहचानता था क्यूंकि उनके द्वारा संपादित गोंडवाना दर्शन का मैं नियमित पाठक था। मैं उनकी लेखनी का कायल था उनमें अद्भुत सम्पादन क्षमता थी। उनके निधन की ख़बर ने मुझे दुबारा झकझोर दिया था और मैं फिर से विचलित हो गया था लेकिन उनके कहे गए शब्दों नें मुझे अपने कर्मपथ से अलग नहीं होने दिया। मैंने पिछले पाँच सालों में कभी भी उनके बारे में कुछ नहीं लिखा और न ही कहीं किसी से कोई चर्चा की लेकिन उन्हे हमेशा से दिल से चाहता हूँ। इसके पीछे भी एक कारण था, मैं उनके बारे में बहुत विस्तार से लिखना चाहता हूँ।  


तो आइये उस संस्मरण से आपको भी जोड़ता हूँ और भोपाल में वर्ष  2016 के जंगों लिंगों के पर्व पर सभी लोग उनसे मिल रहे थे फोटो खिचवा रहे थे और बाते कर रहे थे लेकिन पता नहीं क्यूँ मैं कुछ दुखी और भावुक सा था और दादा कंगाली के निधन से उपजे खालीपन को महसूस कर रहा था। इसीलिए वह कार्यक्रम मुझे आकर्षित नहीं कर रहा था काफी देर तक मैं अन्य लोगों के साथ उनके आस पास रहा लेकिन बात नहीं किया। बरखेड़ा के गौरा गुड़ी पेन थाना में सामूहिक गोंगो का आयोजन किया गया था । दादा ताराम भूमका के बगल में बैठ कर गोंगों सम्पन्न कर रहे थे और मैं उन्हें दूर खड़ा होकर निहार रहा था और सोच रहा था कि एक इतना बड़ा संपादक कैसे लोगों के साथ जमीन पर बैठकर सामूहिक गोंगों का हिस्सा बन रहा है? इस बात ने मुझे उनके प्रति प्यार और सम्मान से सरोबार कर दिया। मैं मांदी के खत्म होने का इतज़ार करता रहा और जैसे ही वो गोंगों सम्पन्न करके पेन थाने की तरफ जाने लगे तो मैंने तुरंत उनको पकड़ लिया और सेवा जोहार करते हुए उनसे कुछ समय चाहा। 


धूप में बैठकर काफी देर गोंगो करने के कारण उन्हे पसीना आ रहा था और प्यासे भी थे मैंने तुरंत उनके बैठने के लिए कुर्सी और पानी की व्यवस्था की और एक पेड़ की हल्की छांव में उनके साथ बैठ गया। कुल मुलाकात मुश्किल से 8-10 मिनट की रही होगी लेकिन वह बहुत ही यादगार रही और उस मुलाक़ात ने जो कुछ भी सिखाया उसका असर मुझमें आप साफ साफ आज आप देख सकते हैं। एक छोटी सी सलाह नें मेरी सोच और ज़िंदगी जीने का नज़रिया ही बदल दिया। 


मैंने दादा कंगाली के निधन के बाद अपनी मानसिक स्थिति का हवाला देते हुए बहुत निराशात्मक लहजे में अपनी बात रखनी शुरू की और अपना बारे में बताने लगा। मुझे आश्चर्य हुआ कि वे मेरे बारे में पहले से ही जानते थे और मुझे रोकते हुए बोले किसी कि किसी जाने से दुनिया नहीं रुकती प्रकृति नहीं रुकती। आज नहीं तो कल हम सभी को जाना ही है और हमारी आपकी जगह कोई और भरेगा। जहां जब जिस चीज की कमी होती है प्रकृति उसका विकल्प या कमी पूरी कर लेती है। अगर आप सच्चे कोया पुनेमी हैं और कोइतूर समाज के सामाजिक और सांस्कृतिक विचारधारा के समर्थक हैं तो उसकी कमी पूरी करिए, लिखिए पढ़िये और कुछ नया करिए। समस्याओं का रोना तो सभी रोते हैं आपमें लिखने पढ़ने की क्षमता है आप लिखिए और मोती रावण कंगाली के लेखन को आगे बढ़ाइए। 


उन्होने बहुत सारी किताबों के नाम भी बताएं जिनको मैंने नोट कर लिया था। उन्होने जो बात बताई उससे मैं भी सहमत था। ताराम दादा अपने लेखन और पठन पाठन के प्रति अपने समाज के लोगों की उदासीनता से बहुत दुखी थे और चाहते थे कि समाज में पढे लिखे अच्छे लोग आगे आयें।  समाज के इतिहास, संस्कृति, कला, भाषा और साहित्य के बारे में विस्तार से लिखें। लेकिन दादा समाज की इस सोच से के कारण निराश भी थे और बताया कि वे अपने पूरा जीवन समर्पित करने देने के बाद भी वैसा परिणाम नहीं देख पा रहे हैं जिसकी उन्हें आशा थी। 


यकायक लगा किसी ने मुझे जीने का मकसद दे दिया किसी ने मुझे गलत राह से उंगली पकडपर सही रास्ते पर ला दिया। बस वही मेरी पहली और आखिरी मुलाक़ात थी। लेकिन उनसे एक छोटी सी मुलाक़ात ने कोइतूर संस्कृति और कोया पुनेम के प्रति समझदारी को और पुख्ता कर दिया। अगर दादा कंगाली नें मुझे कोया पुनेम की तरफ आकर्षित किया तो दादा सुंहेर सिंह ताराम ने लिखने और दस्तावेजीकरण की जरूरत के लिए प्रेरित किया। 


मैं हमेशा सोचता था जब तराम दादा के बारे में कुछ बड़ा लिखुंगा तब इस बात को दुनिया के सामने उजाकर करूंगा लेकिन इधर बीच कई मित्रों और प्रशंसकों नें फोन और सोशल मीडिया के माध्यम से शिकायत किया कि आप दादा सुंहेर सिंह ताराम के बारे में कुछ नहीं लिखे जबकि आपने सभी महान हस्तियों के बारे में लिखा है। मैं अभी भी उनके बारे में नहीं लिख रहा हूँ। उनका कृतित्व इतना विशाल है कि उनकी बातें उनका जीवन एक लेख या संमरण में नहीं बल्कि एक ग्रंथ के रूप में आना चाहिए। आज उनकी दूसरी पुण्यतिथि है यकीन नहीं होता कि एक धूमकेतु कोया पुनेम के क्षितिज पर अपनी चमक छोडकर हमसे जुदा हो गया।  आज इस अवसर पर पर उन्हे याद करते हुए हम सभी उन्हें हार्दिक श्रद्धांजलि और सादर सेवा जोहार करते हैं और उनके श्री चरणों में नमन करते हैं। 



डॉ सूरज धुर्वे