◆ कांग्रेस युक्त भाजपा में अब बढ़ रहा नेताओं का तनाव
◆ असमंजस में डूबे है कैलाश विजयवर्गीय और उनके समर्थक नेता
◆मध्यप्रदेश के 24 सीटों पर होना हैं उपचुनाव
युवा काफिला,इंदौर-
कांग्रेस मुक्त भारत का नारा लगाते लगाते भाजपा कब कांग्रेस युक्त हो गई इसका इल्म नेताओं को जरा देर से हुआ। कुछ समझते उससे पहले ही मध्यप्रदेश की सियासत खास कर भाजपा के रंग बदल गए। प्रदेश भाजपा के कांग्रेस युक्त होने से पार्टी बड़े नेताओं का तनाव खासा बढ़ा हुआ है। एक अजीबों गरीब स्थिति में नेता फंसे है, कारण साफ है कि एक तरफ ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके समर्थकों को सर माथे पर बैठाने की मजबूरी और दुसरी तरफ खुद का वजूद बचाने की चिंता। यह हालात उन जिलों में ज्यादा है जहां उप चुनाव होने वाले है। पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय जैसे तमाम नेता इन मौजूदा हालातों के बीच असमंजस में डूबे है। बात विजयवर्गीय की करे तो अबीज पशोपेश में वो और उनके समर्थक फंसे हुए है। एक तो वे अपनी टीम के सेनापति रमेश मेंदोला मंत्री नहीं बन सके और दुसरी और उनके ही क्षेत्र के कट्टर दुश्मन अब भाजपा का हिस्सा हो गए। सियासत के बदले समीकरणों ने विजयवर्गीय केम्प को सन्नीपात की स्थिति में ला दिया है।
संगठन के रवैया कर रहा हैरान -
उप चुनाव की छाया में प्रदेश की सियासत में हो रहे बदलाव का असर राजधानी भोपाल से ज्यादा ग्वालियर चंबल और इंदौर संभाग में देखा जा रहा है। क्योंकि उप चुनाव की सर्वाधिक 21 सीटें इन्हींं दोनों संभागों की है। दोनों ही क्षेत्रों में सिंधिया का प्रभाव है और जाहिर बात है कि उनका भाजपा के मौजूदा बड़े नेताओं से अदावत भी थी। ग्वालियर चंबल में डेमेज कंट्रोल की कमान तो नरेंद्र सिंह तोमर जैसे नेता ने संभाल ली है मगर मालवा निमाड़ में स्थिति अलग है। इस सूबे में सूबेदार की भूमिका में कैलाश विजयवर्गीय को पार्टी ने आगे तो कर दिया मगर सिंधिया के साथ उनकी अदावत आसानी से खत्म होने वाली नहीं है। उधर पार्टी का रवैया भी टीम विजयवर्गीय को हैरान किए हुए है। एक तरफ तो उन्हें इंदौर उज्जैन का प्रभारी घोषित कर महत्व दिया जाता है दुसरी और मंत्री मंडल के गठन जैसे अहम फैसले की जानकारी तक नहीं दी जाती। पार्टी संगठन के इस रवैये को टीम विजयवर्गीय समझ नहीं पा रही।
दुश्मन को सहन करने की मजबूरी -
राष्ट्रीय महासचिव विजयवर्गीय के पास कहने को पश्चिम बंगाल की जवाबदारी है पर उनका मन मध्यप्रदेश में ही रमाता है। यहीं कारण है कि किसी ना किसी तरीके से वे अपनी मौजूदगी का अहसास करवाते रहते है। सिंधिया के साथ उनकी पुरानी अदावत है। यह अदावत मध्यप्रदेश क्रिकेट एसोसिएशन की राजनीति से शुरू हुई जो आज भी कायम है। सिंधिया का भाजपा में प्रवेश विजयवर्गीय को कभी रास नहीं आया। अब संकट यह है कि सिंधिया के साथ उनके समर्थक नेता भी केसरिया बाना औढ़े चुके है। जिसमे मोहन सेंगर जैसे नेता का नाम भी शामिल है। विजयवर्गीय और रमेश मेंदोला की सेंगर के साथ दो दशक पुरानी दुश्मनी है। विजयवर्गीय के खास रहे पार्षद राजेश जोशी हत्याकांड के कारण पैदा हुई इस दुश्मनी का असर अभी भी गहरा है। 2018 के विधानसभा चुनाव में उस हत्याकांड की याद ताजा हुई थी जब सेंगर मेंदोला के सामने कांग्रेस के टिकट पर चुनाव मैदान में उतरे थे। अब मजबूरी यह है कि सिंधिया के साथ साथ मोहन सेंगर को भी सहन करना है वह भी अपने गृह क्षेत्र में।
असल तमाशा अभी शेष है -
बात सिंधिया और उनके समर्थकों के भाजपा प्रवेश पर खत्म नहीं हो रही, असल तमाशा तो अभी शेष है। मौजूदा दौर में सिंधिया सत्ता के पावर हाउस है यानी सुपर सीएम की भूमिका में। सिंधिया की सियासत को जानने वालों को पता है कि वे अपने समर्थकों का सम्मान बनाए रखते है। जाहिर बात है कि सिंधिया के दौरे के वक्त उनके साथ लवाजमा पुराने कांग्रेसियों का ही होगा। ऐसे में विजयवर्गीय के क्षेत्र में शक्ति प्रदर्शन होना भी लाजमी है। बीते दो दशक में जिन कांग्रेसियों को टीम विजयवर्गीय ने हाशिए पर डाल दिया था वही कांग्रेसी भाजपाई बन कर अब नई चुनौतियां पेश करेंगे। सियासत का यह रोचक तमाशा भी काफी दिलचस्प होने वाला है।