◆ क्या हैं असली वजह
◆ क्यों होते हैं लोग मानसिक रूप से कमजोर
◆ क्या सोचता हैं अवचेतन मन
युवा काफिला, भोपाल-
उभरते कलाकार सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या की खबर के आने से डिप्रेशन और मानसिक स्वास्थ्य पर काफी चर्चा की जा रही है। तो क्यों न हम भी कुछ पहलुओ पर बात करें। इससे पहले की हम इस विषय पर विस्तार में बात करना शुरू करे, मै चाहूंगा की पक्षपाती मानसिकता को उतपन्न न होने दें। क्योंकि, मेरा मकसद डिप्रेशन और उससे जुड़ी चीजों का विश्लेषण करना है, आत्महत्या को बढ़ावा देना नही। सबसे पहले तो हमे यह समझना होगा की डिप्रेशन होता क्या है।
हम सभी लोग अक्सर तीन प्रकार के स्टेट ऑफ माइंड पर परिस्तिथि के अनुसार शिफ्ट होते हैं।
1. पहला है खुशी का स्टेट ऑफ माइंड जिसमे हम किसी पल का आनंद ले रहे होते हैं।
2. दूसरा है दुःख का स्टेट ऑफ माइंड जिसमे हम किसी कारण से दुःखी होते हैं।
3. तीसरा है न्यूट्रल स्टेट ऑफ माइंड जिसमे हमारी मनोदशा सामान्य होती है।
जैसे की ब्रश करते समय, पेपर पढ़ते समय या कपड़े बदलते समय होती है। डिप्रेशन वाला व्यक्ति हमे ऐसा नज़र आएगा की वह भी हमारी तरह ही स्टेट ऑफ माइंड को शिफ्ट कर रहा है। अगर आप सुशांत के इंटरव्यू देखेंगे तो आपको वह मज़ाक करते हुए और हस्ते हुए नज़र आएंगे। ऐसा इसलिए क्योंकि डिप्रेशन वाला व्यक्ति एक अलग ‘पर्सोना’ बना लेता है। एक ऐसा पर्सोना जो उसने बाहरी दुनिया में सामान्य लगने के लिए बनाया होता है। इसलिए हमे भनक भी नही लगती की उसे डिप्रेशन है। हमे लगता है की डिप्रेशन में व्यक्ति हमेशा दुःखी रहता है और रोता रहता है। पर सच यह है की वह दुःखी नही बल्कि मानसिक रूप से एनर्जीलेस होता है।
सुशांत की मौत के बाद कई लोगों के मन में सवाल आता है की पैसा, गर्लफ्रैंड, घर, गाड़ी और फेम के होते हुए कोई व्यक्ति डिप्रेशन का शिकार कैसे हो सकता है? इसका उत्तर देने के लिए हमे जानना होगा की डिप्रेशन की जड़ क्या होती है। कम शब्दो में कहें तो डिप्रेशन की जड़ है " I'm worthless" वाली भावना। इस भावना को बाहरी चीज़ें ट्रिगर करती हैं। सुशांत के मामले में भी यही हुआ है। सुशांत को महत्वहीनता महसूस होती थी। और उनके महत्वहीनता के भाव को ट्रिगर करने के काम बॉलीवुड ने किया। डिप्रेशन एक ऐसी लड़ाई है जिसमे हमारी दुश्मनी अपने ही विचारों से होती है। इस लड़ाई में पैसा और शोहरत का कोई काम नही होता। अगर कोई व्यक्ति हमे गाली दे रहा है या हमारा मनोबल कम करने की कोशिश कर रहा है तो उसको पैसा और शोहरत दिखाके हम उसका मुह बन्द कर सकते हैं।
लेकिन जब हम खुद अपने आप से बोल रहे हैं की "मेरा कोई महत्व नही" तो ऐसी परिस्तिथि में पैसा और शोहरत काम नही आता और यही कारण है की बहुत पैसे वाले लोग भी डिप्रेशन का शिकार होते हैं। यह जो कुछ भी हासिल करते हैं उससे अगर सन्तुष्ट नही हो पाते हैं तो महत्वहीन महसूस करते हैं। कम शब्दों में कहा जाए तो हम लोगों के लिये सफलता की परिभाषा ही गलत है। सफलता का आंकलन पैसा,शोहरत या बंगले से नही होता बल्कि आत्म सन्तुष्टि से होता है। ध्यान रहे इसका मतलब यह बिल्कुल भी नही है की पैसा किसी काम का नहीं। पैसा भी बहुत ज़रूरी चीज़ है।
इस दौरान लोगों के लिए यकीन करना मुश्किल होजाता है जब उन्हें मालूम पड़ता है की बहुत प्रसिद्ध और सफल लोग भी डिप्रेशन के शिकार होजाते हैं। अधिकतर लोगों का कहना होता है की "हमें भी कभी-कभार डिप्रेशन हो जाता हैं लेकिन हमने तो कभी आत्महत्या करने के बारे में नही सोचा।" अधिकतर लोग ब्रेकअप के दुःख या किसी व्यक्ति की मृत्यु पर होने वाले दुःख को डिप्रेशन समझ लेते हैं। बल्कि डिप्रेशन इन अस्थायी दुःखों से बहुत गहरा होता है। "Life is all about moving on" यह वाला उद्धरण तो आपने सुना ही होगा। यह हमारी ज़िन्दगी का प्राकृतिक नियम है। हमारा ब्रेकअप होता है तो कुछ समय के लिए हम परेशान रहते है। लेकिन वापस रास्ते पर आजाते हैं। हमारे परिवार में किसी की मृत्यु होती है तो हम कुछ महीनों के लिए दुःखी रहते है। लेकिन हम इससे भी आगे बढ़ जाते हैं। हमारा अवचेतन मन(subconscious mind) धीरे-धीरे इस नियम का पालन करना शुरू कर देते हैं। पुरानी घटनायों को नज़रअंदाज़ करके आगे बढ़ पाना हमारे लिए संभव हो पाता है क्योंकि, हमे अपनी ज़िन्दगी महत्वपूर्ण लगती है और उसको पहले से बेहतर बनाने में हम जुट जाते हैं।
लेकिन डिप्रेशन के शिकार हुए व्यक्ति के लिए मूव ऑन कर पाना बहुत ज़्यादा मुश्किल होता है क्योंकि उसके लिए तो ज़िन्दगी लक्ष्यहीन होजाती है। जब लक्ष्य नही नज़र आता है तो आत्म सन्देह धीरे-धीरे बढ़ता जाता है और एक वक़्त ऐसा आता है जब व्यक्ति खुद को अमूल्य और महत्वहीन मानने लगता है। डिप्रेशन और अस्थायी दुःख में फर्क यह है की, अस्थायी दुःख हमे बाहरी घटनायों से मिलता है। इसमे हमें हमारे व्यक्तित्व पर कोई शक नही होता। हम बाहर से आ रही नकारत्मकता से लड़ रहे होते हैं। "थॉट मैनेजमेंट" अच्छा होने के कारण हम समय के साथ-साथ आगे बढ़ जाते हैं। लेकिन दूसरी तरफ, डिप्रेशन में हमारी लड़ाई खुदसे होती है।
क्योंकि, हम खुदके व्यक्तित्व को अमूल्य और महत्वहीन समझने लगते हैं। "थॉट मैनेजमेंट" की प्रक्रिया कमज़ोर होने की वजह से कई अस्थायी दुःख डिप्रेशन को ट्रिगर करने लगते हैं। डिप्रेशन और अस्थायी दुःख में जो फर्क है वो समझना ज़्यादा पेचीदा न लगे इसलिए मैं उदाहरण देना सही समझ रहा हूँ। अस्थायी दुःख में मनोदशा कुछ इस तरह की होती है: आप किसी जंगल में भटक गए हो और आपको रास्ता समझ नही आ रहा है। लेकिन आपकी जेब में एक कंपास है जिसकी मदद से आप जंगल से बाहर निकलने की कोशिश करते हो। फिर आपको एक सड़क नज़र आती है और आप उस सड़क पर खड़े होकर किसी के आने का इंतेज़ार करते हो। जब कोई गाड़ी आती है तो आप उसे रोकते हो और उसमे बैठकर निकल जाते हो।
और डिप्रेशन में मनोदशा कुछ इस तरह की होती है: आप समुद्र के बीचों बीच हो। आपको चारो तरफ पानी ही पानी दिख रहा है। आप काफी देर तक तैर-तैर कर ज़मीन को ढूंढने लगते हो। आप किस दिशा में तैर रहे हो आपको कुछ समझ नही आ रहा। फिर आप कमज़ोर होते जा रहे हो। उस वक़्त आपके मन में विचार आ रहा है की इस तरह से जीने से अच्छा तो मर जाना चाहिए। इन उदाहरणों को शाब्दिक अर्थ से नहीं जोड़ना हैं। यह सिर्फ दोनों(डिप्रेशन और अस्थायी दुःख) परिस्तिथयों में दिमागी हालात को समझाने के लिए किया गया है।
हम आत्महत्या करने वाले व्यक्ति को पागल, बेवकूफ या कमज़ोर दिमाग का कहते हैं। इस तरह से बोलना गलत भी है और सही भी। सही इसलिए है क्योंकि, हम कुछ इस प्रकार से सोचते हैं "ज़िन्दगी में तकलीफें तो अक्सर आती हैं लेकिन इसका मतलब यह थोड़ी की मर ही जाना चाहिए।" हमारे जीवन में परेशानिया होने के बावजूद भी हम ज़िंदा रहना चाहते हैं। हम परेशानियों के हल ढूंढते है और जीवन को बेहतर बनाने में लगे रहते हैं। क्योंकि, हमारे लिए ज़िन्दगी बहुत अनोखी चीज़ होती है इसलिए हमारे मन में इसे खत्म करने का ख्याल नही आता है। और जब कोई व्यक्ति ऐसी अनोखी ज़िन्दगी को आत्महत्या करके आसानी से खत्म कर देता है तो हमारे लिए यह सोचना स्वाभाविक होगा की, "कुछ असफलताओं और परेशानियों की वजह से इतनी अनोखी ज़िन्दगी को खत्म नही करना चाहिए, यह बेवकूफी का काम है। ऐसा तो सिर्फ कमज़ोर दिमाग के लोग ही कर सकते हैं।" हम हमारे नज़रिये से बिल्कुल सही हैं। क्योंकि हमारे लिए ज़िन्दगी का महत्व है। हम समाज में सकारात्मक संदेश देने के लिए इस तरह की बात कर सकते हैं।
लेकिन जिस व्यक्ति को आत्महत्या करने के विचार आते हैं उसके लिए सामाजिक संदेश किसी काम के नही है। एक वक़्त ऐसा भी रहा होगा जब वह भी ज़िन्दगी की अहमियत को समझता होगा। जो बातें आज हम कर रहे हैं, उन बातों से वह भी किसी दौर में सहमति जताता होगा। क्या आपको नही लगता की आज से पांच साल पहले सुशांत जब विद्यार्थियों की आत्महत्या की खबरें पढ़ते होंगे तो वह भी वैसा ही सोचते होंगे जैसा आज हम उनकी मौत पर सोच रहे हैं? ज़रूर सोचते होंगे, बल्कि उन्होंने तो इस विषय पर बनी फ़िल्म में काम भी किया था और सकारात्मक संदेश भी दिया था। लेकिन फिर ऐसा क्या हुआ की वह डिप्रेशन के शिकार हुए और आत्महत्या को चुना? हमे यह बात समझनी होगी की आत्महत्या का विचार अचानक किसी के मन में नही आता है।
यह कई महीनों से चल रही विचारों की लड़ाई का नतीजा होता है। जिसमें हमारे द्वारा बनाये हुए नकारत्मक विचार, उन सकारात्मक विचारों पर हावी हो जाते हैं जो हम समाज से सीखते हैं। इसका मतलब यह है की सामाजिक विचार उतने ताकतवर नही होते हैं की वह हमारी व्यक्तिगत समस्या का हल दे सकें। डिप्रेशन एक ऐसी व्यक्तिगत समस्या है जिसके लिए व्यक्तिगत समाधान चाहिए होता है, सामाजिक संदेश नही। या हम ऐसा भी कह सकते हैं की डिप्रेशन के मामले में सामाजिक संदेश एहतियात(precautions) बरतने के लिए होता है। और व्यक्तिगत समाधान इलाज(cure) के लिए होता हैं। अब आप ही सोचिये जो व्यक्ति डिप्रेशन का शिकार हो चुका है उसे एहतियात बरतने से कुछ असर होगा क्या? स्वाभाविक सी बात है की उसे कुछ असर नही होगा और जब वह आत्महत्या कर लेगा तो हम उसे बेवकूफ, पागल या कम दिमाग का कहेंगे। 16-17 साल के अजीब शौक पालने वाले लोग जो खुदको डिप्रेस्ड बताते हैं और कलाई पे ब्लेड से निशान बनाकर तस्वीर भेजते हैं और हमदर्दी की आस में रहते हैं उन्हें बेवकूफ या पागल कहना जायज़ होगा। लेकिन डिप्रेशन जैसी भयानक मानसिक समस्या से हार जाने वाले व्यक्ति को बेवकूफ या पागल कहना सही नही है।
विश्लेषक - वर्धमान असंग
कक्षा - ग्यारहवीं