विचार/ कोरोना महामारी की आड़ में मजबूर मजदूर कब तक शिकार होते रहेंगे

◆ मजदूर आखिर कब जागेंगे
◆ ये मजदूरी या मजबूरी
◆ ये सबक होगा या यही गलती फिर होगी???
‌◆ देशभर के मजदूर भाइयों को सादर समर्पित लेख



युवा काफिला, भोपाल-


आज मैं इन्हीं उपरोक्त बिंदुओं पर बात करुंगा और इनका क्या अच्छा समाधान हो सकता है हमारे भारतीय संविधान के तत्वावधान में वह बात भी करुंगा क्योंकि औरंगाबाद हो, औरैया हो या सोनभद्र व देश के तमाम हिस्सों में आये दिन होने वाले ऐसे हादसों को देखकर हमें मर्मांतक पीड़ा होती है। उस पर हम कितना ही अफसोस जाहिर करें उससे हमारे बहुजन लोग और बहुजन मजदूरों की समस्याओं का समाधान नहीं होने वाला है। जब तक हम संवैधानिक विचार धाराओ में समाधान का रास्ता नहीं निकालेंगे तब तक हमारे साथ बार-बार यही घटनाओं का दोहराव होते रहेगा और पूंजीवाद हमें कुत्ते, बिल्ली और जानवरों से भी बदतर जीवन जीने और जिल्लते झेलने के लिए मजबूर करेंगे । दो-चार दिन सरकारों को कोस-कोस कर अफसोस जाहिर कर ऐसी घटनाओं को भूलकर अगली घटनाओं का इंतजार करते रहेंगे। अगली घटना में फिर वही दो-चार दिन अफसोस जाहिर कर सरकार को कोसकर फिर लंबी खामोशी..।


                 



     अभी लगभग यही हमारी नियति बन चुकी है। इतिहास पर नजर डालें तो ना ही ये कोई प्रथम घटना है और न ही यह कोई अंतिम घटना साबित होगी।


               जिन रेल पटरियों ने मजदूरों की जान ली उन रेल पटरियों को ऐसे ही किसी मजदूर भाई ने ही बिछाया होगा। जिन हाईवे पर चलते-चलते सैकड़ो मजदूरों की जान चले गई उन हाइवे को किसी मजदूर भाइयों ने ही बनाया होगा। जो रेल की पटरियां और हाईवे आज देश की धड़कन है जो ना हो तो पूरा देश का विकास ठप्प हो जाएगा। जब वो इनका निर्माण कर रहे थे तब उन्होंने ये कभी नहीं सोचा होगा कि ये हमारे लिए एक दिन जानलेवा साबित होंगी। जबकि बनाते समय वो जरूर इतना तो सोचे होंगे कि हमें भी एक दिन इसका सुख अवश्य मिलेगा परंतु मिला तो केवल सूखी रोटी और अंत में मौत?


      जबकि उनको बनवाने वाले ठेकेदार और उस निर्माण की ठेका देने वाले सत्ता में बैठे नेता जो ऐसे ही गरीब मजदूरों के वोटो से सत्ता हासिल किए हैं वो कहां से कहां पहुंच गए । इसमे उनकी कामयाबी नहीं हमारी ना समझी और नादानी भरी मूर्खता है की हमने संवैधानिक हक अधिकारों के प्रति आपनी आस्था और क्रांतिकारी कर्मठता नहीं दिखाई और ना दिखा पाएंगे क्योंकि हम इनके तथा कतिथ मनुवाद के गुलाम बन चुके है। अब वे लोग इसका सुख भोग रहें है और हमारा क्या? उन्ही पटरियों में यह लोग एसी क्लास से नीचे पैर नहीं रखते और उन्हीं हाईवे में महंगी गाड़ियों से नीचे बात नहीं करते। यह अभी इस कोविड-19 महामारी में देखने को भी मिला, कि सभी पैसे वालों के बच्चे राजस्थान कोटा से बसों में भरकर देश के विभिन्न राज्यों के गंतव्यों तक पहुंचाया गया। कहीं भी किसी बच्चे को पैदल जाते हुए नहीं देखा गया वहीं विदेश में फंसे हुए नेता मंत्री और संपन्न वर्ग के लोगों के परिवारजनों को हवाई जहाजों से भरकर लाया गया, नमस्ते ट्रंप करवाया गया जो सबसे सबसे बड़ा कोरोना का वाहक बना। इसी दौरान भारत में फंसे विदेशी लोगों को विदेशों में पहुंचाया गया। वहीं मजबूर मजदूर और मजदूरों के बच्चों को पैदल जाते हुए उनकी दिल दहलाने वाली तकलीफों को देखकर उनके छोटे-छोटे बच्चों को रोते हुए देखकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं रूह कांप जाती है। लगता है क्या ये हमारे देश के नागरिक नहीं हैं क्या? मंगोलिया, नेपाल, भूटान, श्रीलंका को हजारों करोड़ रुपये की सहायता देने वाला देश क्या हमारे देश के इन असली देशभक्तों के लिए इतना निष्ठुर हो चुका है? फिर भी किसी का दिल नहीं पसीजा? क्या इंसान इतना दोगला और पत्थर दिल हो सकता है? हां वह दोगला भी है और पत्थर दिल भी है यह साबित हो चुका है। वास्तव में यदि इन्हे चिंता होती तो सबसे पहले करोड़ों मजदूर जो पूरे देश में फंसे है उनको लाकडाउन से पहले एक सप्ताह का समय देकर अपने अपने घर जाने देते जैसे अभी कर रहे हैं जब कोरोना फैल चुका है। जैसे इन्होंने उच्च वर्ग का ध्यान रखा वैसे ही मजदूरों का ध्यान रखते तो किसी को भी कोई परेशानी नहीं होती। उसमें न तो सरकार को एक रुपया लगता और न ही मजदूर ऐसे बेमौत मारे जाते और न ही हजारों किलोमीटर उन्हें पैदल चलना पड़ता। यदि मजदूरों को रोका गया था तो उनके लिए जरुरी रुकने की व्यवस्था, खाने की व्यवस्था करते तब तो मजदूरों को जरा भी परेशानी नहीं होती।
      आज इन मजदूरों में संक्रमण का खतरा बेवजह सबसे ज्यादा हो चुका है क्योंकि ये भारी मुसीबत और परेशानी के बीच जिन्हें दोनों तरफ मौत नजर आ रही है। ऐसे में अपनों के बीच जाकर मरना ज्यादा उचित लगेगा और घर पहुंच गए तो जिंदा रहने के अवसर ज्यादा रहेंगे। इस आपाधापी में जिन्हें घर पहुंचने की कोई गारंटी नजर न आ रही हो, उनके लिए लॉकडाउन के सभी नियमों का पालन करना कहां तक मुमकिन होगा। इस दौरान वो कई जगह पहले जाने के चक्कर में एक दूसरे से टकरायेंगे और टच होंगे, कई जगहों पर एक दूसरे के छुए हैंडलों को छुएंगे और बेवजह संक्रमण के जद में आएंगे।        


                 


    हममें से बहुत सारे लोग हैं यह भी सोच रहे होंगे कि मजदूर इतनी परेशानियों के बाद में अब कभी शहरों की ओर वापस नहीं लौटेंगे। हम यहां पूरी तरह गलत हो सकते है। देश में सभी क्षेत्रों के मजदूरों को मिलाकर लगभग 40 करोड़ मजदूर होंगे या इससे ज्यादा भी हो सकते हैं। यह मजदूर अपने घरों में रुककर भी क्या करेंगे। उन्हें वापस मजबूरी में उसी दलदल में फिर आना पड़ेगा यह सच्चाई है। 
    सबसे बड़ा प्रश्न कि जिन राज्यों से जो मजदूर बाहर गए हैं वो क्यों गए हैं? उसका सीधा सा कारण है कि वहां की राज्य सरकारों ने बहुत से लोक लुभावन चुनावी वायदों में ठगकर उनके लिए रोजगार की कोई व्यवस्था नहीं किए है। उनको संवैधानिक शब्दावली का ज्ञान ही नहीं, संविधान चिल्ला-चिल्ला के यह कह रहा है की मै लोकतन्त्र हू अर्थात लोगो के द्वारा लोगो के लिये ' न कि किसी व्यापारियों के एकीकरण के लिये हू, मै जिंदा हूं लोगों के सामूहिक विकास के लिये । सभी धर्मो से बड़के समाज के लिए मेरे सभी नियम और क़ानून विकास में सामूहिक समाज का अधिकार निहित है । मै सार्वजनिक हू, प्राईवेट या ठेकेदार की जगीर नहीं हू । मुझ में सभी के लिये शिक्षा-स्वास्थ-रोजगार एवं आत्म स्वतंत्रता है में मन्दिर मस्जिद गुरुद्वारा गिरजाघर से परे हू मै प्रकृति हू सभी के लिये एक समान लेकिन मनुवादीयो की विचार धरा पर चलने वले नेताओ के चलते मुझमे संशोधन हों रहें है। जिसने मुझे भारत देश के विकास के लिए आदिवासी कोयतुड राजाओ ने आपनी 258 रियासतें भारत के विस्तार और विकास के लिए दी । जिस भारत के संविधान ने उनके इस सहयोग के लिये अनुसूची 5/6 पेशा एक्ट और भू-अधिनियम के जल -जंगल -जमीन के अधिकार दिए क्योंकि वो लोग प्रकृति के मार्ग पर चलने वाले थे। 



अब हमारे बहुजन मजदूरो ने उनको भूलकर अपने वोट के अधिकार की शक्ति का दुरुपयोग किया और आपनी सत्ता मनुवादियों पूंजी-पतियों को मूल तंत्र मानने वालो के हवाले आपने समाजवादी लोकतन्त्र के ढ़ाचे को शॉप दिया ये उसी का नतीजा है । इसीलिए उन्हें मजबूरी में बाहर काम करने जाना पड़ा है। यदि राज्य सरकारें उनके लिए उनके जिलों में रोजगार उपलब्ध करवाती तो उन्हें बाहर जाने की जरूरत ही नहीं पड़ती।



    यह मजदूर इतनी जानलेवा यातनाएं भुगतने के बाद भी अब कोई सबक नहीं सीखते हैं, तो यह तय है कि इसकी पुनरावृत्ति होगी और आने वाले समय में इससे भी भयानक पुनरावृत्ति हो सकती है।


     यह वायरस आज नहीं कल चला जाएगा पर इस जानलेवा वायरस से
 क्या सबक सीखें या यही गलती फिर करेंगे?
 या मजदूरी मजबूरी बनी रहेगी?
 या मजदूर वर्ग कभी जागेगा?
  इसी निष्कर्ष पर हम इस लेख के माध्यम से अंत में पहुंचना चाहेंगे।


समाधान


    सोचें आज यदि यही मजदूर संगठित हो जाते हैं और एक राष्ट्रीय स्तर की रजिस्टर्ड संगठन या एसोसिएशन बना लेते हैं या जो कम्युनिस्ट पार्टी मजदूर किसान के लिये काम कर रही है उसके साथ एक जुट हों जाते फिर देखिए इनकी ताकत। इसकी शुरुआत ये किसी भी राज्य या किसी भी जिले से आसानी से कर सकते हैं।



◆ पूरे देश में मजदूरों का एक संगठन या एसोसिएशन हो।


◆ हर राज्य में संगठन का राज्य शाखा हो और उस राज्य के सारे जिला ईकाई उस राज्य शाखा से जुड़े।
◆ प्रत्येक जिले में जिला इकाई शाखा हो।


◆  हर मजदूर कहीं भी मजदूरी करने जाने से पहले अपने जिला इकाई से अनिवार्य रूप से जुड़कर सदस्यता लें।


◆ मजदूरों को अपने ही राज्य या अन्य राज्यों में मजदूरी करने जाना है वो सब पहले जिला इकाई के माध्यम से ही जाएं।


◆ जिन मजदूरों को दूसरे राज्यों में मजदूरी करने जाना है, वो अपने राज्य संगठन के माध्यम से जाएंगे।


◆ राज्य संगठन दूसरे राज्यों के मांग के आधार पर संगठन के नियम और शर्तें के आधार पर मजदूरों को भेजेंगे।


◆ एसोसिएशन या संगठन पूरे राष्ट्रीय स्तर पर यह तय करेगा की उनकी मजदूरी कितनी होनी चाहिए।


◆ उनका पी. एफ.फंड अनिवार्यत: कटकर उनके भविष्य निधि फंड में जमा होगा।


◆ उनका इंश्योरेंस अनिवार्य रूप से हो।


◆ दुर्घटना बीमा अलग से अनिवार्य रूप से होगा।


◆ उनकी आने-जाने की व्यवस्था जिस कंपनी में काम करने जाएंगे वह कंपनी करेगी।


◆ आने जाने के दौरान खाना पानी की व्यवस्था जिस कंपनी में जा रहे हैं वह कंपनी करेगी।


◆ एसोसिएशन संचालन के लिए हर मजदूर का 2 से 4% या जो भी डिसाइड हो वह एसोसिएशन को अंशदान के रूप में उसके तनख्वाह से स्वत: ही कटकर आएगा।


◆ बहुजन मजदूरो की तनख्वाह उनके कार्य कौशल अनुसार असोसिएशन एक समान सभी राज्यों के लिऐ तय करेगा । 


◆ बहुजन मजदूर असोसिएशन द्वारा संवैधानिक नियमों के आधर पर जल-जंगल-जमीन एवं अनुसुचि 5/6 के साथ पेशा एक्ट और भू-ग्रहण अधिनियम के साथ- साथ बहुजनो  के समस्त अधिकारों के लिऐ काम करेगा । 


◆ बहुजन मजदूर असोसिएशन वास्तविक अधिकारों की लडा़ई के लिये आपने राजनेतिक नेताओ को भी प्रशिक्षण देगा।


◆ भाषा, शिक्षा, स्वास्थ, रोजगार-उध्योग, संस्कृति-सामाजिक व्यवस्था, प्रसारण जेसे क्षेत्रों मै आपने बहुजन समाज को उसका सामूहिक लाभ प्राप्त हों । 



  यह सब मुख्य मुख्य बिंदु है इनमें सदियो पहले से मजदूर संघ इनके लिये लड रहा है जैसे CPIM, CPI, GGP जैसे राष्ट्रीय स्तर के दल लगे हुऐ है। उनके विचारो के साथ आगे बढा जाए लेकिन हमारे मजदूर वर्ग और ऐसे नेता MLA/MP जिन्हें बहुजन मजदूर किसान चुनकर भेजता है वो भी अपनी रोटी सेकने का काम करते है । 
उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य, रोटी- कपड़ा और मकान के साथ साथ सामूहिक रोजगार , संस्कृति सभ्यता भाषा विज्ञान पर्यावरण सन्तुलन आदि अनेक कार्यो के साथ महिलाओं-पुरुषों की सामान्य भागीदारी पर कार्य करते हैं। जब हम इन्हें वोट देने के लिए लाईन में लगते है, उसी तरह उनसे काम भी करवाया जाता । इनसे काम करवाया जाए जिसके लिये हमने इन्हें विधानसभा/संसद भेेेजा हैैं। उस काम का हिसाब मागा जाए नहीं तो इनकी कुर्सी गिरा दी जाए ।       
             जब सारे मजदूर संगठित होकर एक हो जाएंगे तो कोई भी कंपनी एक भी मजदूर को अलग से नहीं लेकर जा पाएगा और न ही कोई मजदूर ऐसे बे मौत मरने के लिए अकेले जाएगा।


      आज देश में जितने भी कल कारखाने उद्योग-धंधे हैं चाहे वो सरकारी या प्राइवेट हो सब में स्थाई कर्मचारी जितने हैं उसके तिगुने-चौगुने ठेका मजदूर काम कर रहे हैं। वो भी छोटे-छोटे लोकल ठेकेदारों के माध्यम से जो कभी भी निकाल देते हैं कभी भी बुला लेते हैं। मजदूर हर समय काम जाने के भय में कुछ बोल पाते ना कुछ कर पाते हैं। आज ये मजदूर संगठित होकर एक हो जाएं तो देश के कोई भी कल कारखाने उद्योग धंधे चल ही नहीं पाएंगे। जैसे आज कोविड-19 कोरोना वायरस ने पूरे देश को बैठा कर रख दिया है। वैसे ही मजदूर एक हो गए तो जब चाहेंगे तब पूरे देश को बैठा कर रख देंगे। जब मजदूर एक हो जाएंगे तब मजदूरों के हित में बहुत से सरकारी नीतियां भी बनेंगे। उनके हित में बहुत सारे अच्छे फैसले होंगे। मजदूरों का संगठित होना असंभव नहीं बहुत आसान है। बस कहीं से भी एक सार्थक पहल की जरूरत है। अभी एक बंधुआ मजदूर की तरह उनका शोषण कंपनी और ठेकेदार मिलकर दोनों करते हैं।


    यदि मजदूर मिलकर ऐसा कर लेते हैं तो उनके आर्थिक जीवन ही नहीं बल्कि उनका पारिवारिक जीवन और बच्चों का अच्छा भविष्य बना पाएंगे, सामाजिक जीवन के तरफ ध्यान दे पाएंगे, राजनीतिक जीवन में भी बहुत बड़ा बदलाव आएगा। सभी में एक निश्चित ही आमूलचूल परिवर्तन आएगा।



                  राधेश्याम काकोडिया 
                      मंंडला ( म.प्र.)


                   मो -7987261108


               लेखक - स्वतंत्र विचारक हैं।