◆ चलिए गांव की ओर कबीरपंथी लोगों की चर्चा सुनने
◆ कबीर और बुध्द के संबंध में बाबा साहेब
◆ कबीर और बुध्द को देखे बाबा साहेब के नजरिए से
युवा काफिला, भोपाल-
कुछ साल पहले मध्यप्रदेश के मालवा के गांवो में मैं कबीर के संबंध में कुछ अध्ययन कर रहा था। कई गरीब दलित कबीरपंथियों के साथ एक ऊंची जाति के राधास्वामी डेरे के भक्त भी बैठे हुए थे। हम सब बैठकर आपस में बातें कर रहे थे। मैं उनकी चर्चा ध्यान से सुन रहा था, वे अपने अध्यात्म और लोक परलोक की लंबी-लंबी बातें कर रहे थे। मैंने थोड़ी देर बाद उनसे पूछा इस सब का गरीब और अछूत आदमी को क्या फायदा है? सारे दलित कबीरपंथी एक दूसरे का मुंह देखने लगे, वे कुछ बोलना तो चाह रहे थे लेकिन राधास्वामी संप्रदाय के उस एक बनिया मित्र की उपस्थिति में कुछ बोल नहीं पा रहे थे।
मैंने उन राधास्वामी के भक्त मित्र से पूछा कि आप ही बताइए आप सब लोग इतनी आत्मा-परमात्मा और अध्यात्म की बात करते हैं क्या आप एक-दूसरे के घर में खाना खा सकते हैं? क्या आपके बेटा-बेटी एक दूसरे से शादी कर सकते हैं? वे ऊंची जाति के सज्जन बोले - नहीं ऐसा नहीं हो सकता। वे सज्जन इस प्रश्न से चिंतित हो गए लेकिन गरीब दलितों के सामने महान बनते हुए कहने लगे कि मैं जात-पात बिल्कुल नहीं मानता । मैं तो यहां आप लोगों के बीच में बैठकर चाय तक पी लेता हूं। बात उन्होंने बड़े गर्व से बोली, हालांकि मेरे साथ बैठे अन्य गरीब दलित कबीरपंथी कुछ कहना चाह रहे थे लेकिन कह नहीं पा रहे थे।
मैंने मौके की नजाकत को समझते हुए वह चर्चा बंद कर दी, थोड़ी देर बाद राधास्वामी के भक्त वहां से चले गए। मैंने फिर से बात वही बात निकाली। अब गरीब दलित कबीरपंथी मेरे साथ अकेले थे। मैंने उनसे पूछा कि आपको क्या लगता है आत्मा-परमात्मा, नाम-साधना, घट-साधना, भक्ति-भजन करके आपको क्या मिलता है? वे सब एक स्वर में कहने लगे कि इससे आत्मा की कमाई होती है। अगले जन्म में अच्छा लोक मिलेगा, स्वर्ग मिलेगा। अपने कर्म अच्छे होंगे तो कर्म का पुण्य मिलेगा।
मैंने उनसे पूछा है कि अभी यह जो जिंदगी सामने है इसमें क्या मिलेगा? वे लोग इसके उत्तर में कुछ नहीं कह पाए। वे बार-बार कहने लगे परमात्मा की भक्ति भजन का इस संसार से कोई मतलब नहीं है, यह तो अंतर लोक की बात है। फिर इस बात को समझाने के लिए वह कबीर के दोहे दोहराने लगे। बीच-बीच में वे जाति-पाती और धर्म के झगड़े कि निंदा करने वाली साखियां भी गाते जाते थे।
उनमें से एक युवा व्यक्ति ने मेरे प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास किया। उन्होंने बताया कि यहां पर कुछ नाम जपने वाले डेरे हैं हफ्ते में एक बार उनका सत्संग होता है। सत्संग घर के अंदर जब सब लोग बैठे होते हैं तब सभी एक साथ बैठे होते हैं, वहां पर जात-पात का कोई भेदभाव नहीं होता। लेकिन जैसे ही सत्संग घर का गेट लगाकर बाहर निकलते हैं, फिर से जात-पात शुरू हो जाता है। मैंने पूछा कि क्या आपके ऊंची जाति के सत्संगी मित्र आपके बच्चों को पढ़ने लिखने के बारे में या नौकरी व्यवसाय के बारे में कोई सलाह देते हैं?
उन्होंने कहा नहीं वे भक्ति भजन के बारे में सलाह देते हैं। फिर उन्होंने यह भी बताया कि गांव में करीबन 10 हैंडपंप है सारे के सारे ऊंची जाति के लोगों के मोहल्लो में लगे हुए हैं। धीरे-धीरे चर्चा में पता चला कि जितने भी सत्संगी लोग हैं उनमें ऊंची जाति के लोगों का अपना एक नेटवर्क है, यह लोग गरीब सत्संगी लोगों को ना तो बेहतर मजदूरी देते हैं ना उनकी शिक्षा, रोजगार, पानी, खेती किसानी के लिए कोई मदद करते हैं। बल्कि आए दिन इन गरीबों की महिलाओं के साथ छेड़छाड़ जरूर करते हैं।
मैंने इन लोगों से सीधे-सीधे पूछा कि आप कबीर की बात करते हैं, कबीर तो समाज में बदलाव की बात उठाते थे। आप यह भक्ति भाव में कब से लग गए? वे इस बात को समझना ही नहीं चाहते थे। वे कहने लगे कि भैया इस समाज को क्या बदलेंगे घर में खाने को रोटी नहीं है यह जो लोग हमारी औरतों और बेटियां को छेड़ते हैं उन्हीं के घर हमको मजदूरी करनी होती है। मैंने फिर पूछा अगर ऐसा है आप इन लोगों के भजन और सत्संग करने वाले लोगों से शिकायत क्यों नहीं करते?
इस पर उन्होंने बड़े दुखी मन से जवाब दिया, कि ये सब लोग एक ही हैं ये लोग समय और माथा देखकर तिलक लगाते हैं। जब हम इनसे कोई शिकायत करते हैं वो कहते हैं कि कहां मोह माया में फंसे हो परमात्मा का नाम जपो। लेकिन जब यही ऊंची जात के सत्संगी अकेले में बात करते हैं अब एक एक रुपए का हिसाब ठीक से करते हैं, किसको कितनी मजदूरी देनी है, किसको काम कर रखना है नहीं रखना है, किसने किसके घर में घुसकर चाय पी ली, किसकी बेटी किसके बेटे से बात कर रही है, या फिर किसको किसके साथ नहीं बैठना चाहिए यह सब बातें हैं वे दिन भर करते रहते हैं। इसी तरह की बातें जब गरीब कबीरपंथी जब उनसे करना चाहते हैं, तो उनसे कहा जाता है कि तुम मोह माया छोड़कर ध्यान भजन करो।
कुछ पुराने बहुत बूढ़े मित्र कहने लगे कि जात-पात और धर्म का भेद तभी तक रहता है जब तक की आत्मा में ज्ञान का उदय नहीं होता। वे कबीर के कुछ पद बताकर मुझे समझाने लगे कि परमात्मा ने सबको एक जैसा बनाया है, उस परमात्मा का ज्ञान होते ही मनुष्य के बीच का भेद मिट जाता है। इसलिए जात पात खत्म करने का सबसे अच्छा तरीका है परमात्मा का ज्ञान हासिल करना। मैंने तुरंत उनसे पूछा कि आपको परमात्मा का ज्ञान कब हुआ है? तो उन्होंने हंसते हुए कहा 'अरे यह तो जन्मों-जन्मों की बात है, ऐसे ही थोड़ी परमात्मा का ज्ञान मिल जाता है। वर्षों तक साधना करनी पड़ती है।'
इस पर मैंने उनसे पूछा कि अगर एक इंसान को परमात्मा का ज्ञान पाँच जन्मों की साधना से होता है,और यह इंसान अगर सबको भाई-बहन मानने लगता है तो इस एक इंसान से पूरे समाज को क्या फायदा होगा? आप जैसे करोड़ों गरीबों की जिंदगी में क्या बदलाव आ जाएगा? यह बात सुनकर वह एक दूसरे का मुंह देखने लगे। वह गरीब कबीरपंथी समझना ही नहीं चाहते थे कि उनका आत्मा परमात्मा पाप-पुण्य और पुनर्जन्म का यह खेल कबीर को पसंद नहीं था। उनके मन में गहरा बैठा हुआ है कि यह सब कबीर ने ही सिखाया है।
अब हमारे लिए सवाल यह है कि कबीर की शिक्षा मोक्ष और परलोक के लिए है, ऐसी बात उन्हे किसने और क्यों सिखाई है?
याद कीजिए आपको स्कूल मे कबीर के कौनसे दोहे सिखाए गए हैं? क्या उन्मे सामाजिक बदलाव की बातें थीं? या फिर गुरु गोविंद दौ खड़े वाले दोहे मात्र थे? इसी मालवा में एक विश्वविख्यात शास्त्री गायक भी रहने आए थे, उन्होंने कबीर को जिस तरह से गाया है उसमें अध्यात्म लोक परलोक आत्मा परमात्मा गुरु की भक्ति रहस्यवाद कूट कूट कर भरा गया है। उनकी 'दिव्य' आवाज में कबीर के बाद सुने तो लगता है कि कबीर कोई बहुत बड़े रहस्यवादी थे, और ऐसे रहस्यवादी थे जिसका समाज से कोई मतलब ही नहीं था। पूरे मीडिया ने और यहां तक कि बड़े-बड़े साहित्यकारों ने भी कबीर की उन्हीं साखियों को खूब ऊंची आवाज मे गाया है जिससे बनियों ब्राह्मणों और क्षत्रियों की स्थानीय शक्ति संरचना पर कोई बुरा प्रभाव ना पड़े।
दुनिया भर के शास्त्री गायक, साहित्यकार नाम जाप सिखाने वाले डेरे हो,या कबीरपंथी महंत हो, या फिर कबीर को गाने वाले अन्य कलाकार हों, ये सब बहुत सावधानी से सबसे गरीब लोगों को ध्यान साधना आत्मा परमात्मा सिखाते हैं, ये लोग गलती से भी समाज में बदलाव की बात नहीं करते। लेकिन दूसरी तरफ जो शक्तिशाली तबका होता है उसके साथ इन्ही लोगों की चर्चा बहुत ही अलग होती है। यह षड्यन्त्र असल मे जमीन और खेत खलिहान से लेकर साहित्य कला और विमर्श के सबसे ऊंचे प्रतिष्ठानों तक फैला हुआ है।
ऐसा नहीं है कि यह खेल सिर्फ कबीर तक सीमित है, यह खेल अब गौतम बुद्ध के साथ भी भयानक ढंग से शुरू हो चुका है। गौतम बुद्ध की शिक्षाओं को भी आत्मा परमात्मा और पुनर्जन्म की दिशा में मोड़ जा रहा है। धर्म संस्कृति इतिहास और अध्यात्म की राजनीति ना समझने वाले बौद्ध मित्र भी इस खेल में अपने दुश्मनों की मदद कर रहे हैं। ये लोग बुद्ध के धर्म को लोक परलोक ध्यान साधना मोक्ष और निर्वाण तक ही सीमित रखते हैं। परिवार समाज और आचार व्यवहार में बदलाव की बात पर ये लोग अचानक चुप हो जाते हैं।
यह भी उन गरीब कबीरपंथीओं की तरह कहते हैं कि अपने अनुभव से अपनी साधना से अंतर्मन को साफ करो, अपना दीपक खुद जलाओ यह बुद्ध का मार्ग है। लेकिन यह लोग यह नहीं देखते गौतम बुद्ध स्वयं बुद्धत्व प्राप्ति के पहले ही अपने जीवन में कितना बड़ा बदलाव लाए थे। सुख सुविधा का जीवन छोड़कर कष्ट का मार्ग चुना,अपना भोजन अपना पहनावा अपने मित्र अपनी सोच अपनी दिनचर्या सब बदल डाली। लेकिन आज के अधिकांश कबीरपंथी और बौद्ध मित्र नाम साधना या फिर विपस्सना मे ही लगे रहते हैं। वे अपने घर अपने बीवी बच्चों को अपने परिवार को, उनके त्योहारों उनके कर्मकांड इत्यादि को बदलने की कोशिश नहीं करते।
जैसे कबीर की सामाजिक क्रांति को भ्रष्ट करने के लिए दुनिया भर के शास्त्रीय महापंडित रहस्यवादी गीत गाते हैं, उसी तरह गौतम बुद्ध की सामाजिक क्रांति को नष्ट करने के लिए दाढ़ी वाले बाबा लोग गौतम बुद्ध को बड़ा रहस्यवादी बताते हैं। ये एक ही खेल के दो चेहरे हैं। दुर्भाग्य से भारत के कबीरपंथी और बौद्ध धर्म इस खेल में गहराई तक फंसे हुए हैं। ये लोग कबीर और बुद्ध को ढंग से पेश करते हैं जैसे कि उनका अपने समाज राजनीति अर्थव्यवस्था स्त्रियों की स्थिति गरीबों की स्थिति इत्यादि से कोई संबंध ही नहीं रहा है।
असल में यह ऊंची जाति के लोगों द्वारा रचा हुआ खेल है। वे सबसे गरीब लोगों को कबीर और बुद्ध के बारे में यही सिखाते रहते हैं कि कबीर और बुद्ध तो मोह माया से दूर रहते थे और साधना के द्वारा स्वर्ग की बात करते थे, अगर तुम इनके सच्चे शिष्य हो तो तुम्हें समाज और दुनिया की मोह माया में नहीं पड़ना चाहिए।
इसलिए मुझे बार-बार लगता है कि, संत कबीर हो या गौतम बुद्ध हो जब तक उन्हें आप बाबा साहेब आंबेडकर के नजरिए से देखना जरूरी है। जब तक यह नहीं होगा तब तक भारत के ओबीसी अनुसूचित जाति और जनजाति के लोग संत कबीर या गौतम बुद्ध के नाम से भी स्वयं का नुकसान ही करते रहेंगे। कोई दवाई कितनी भी शक्तिशाली या अच्छी क्यों ना हो, जब तक एक कुशल चिकित्सक उसका उपयोग करना आपको नहीं सिखाता तब तक आप सुरक्षित नहीं हो सकते। जो लोग कहते हैं कि कबीर को सीधे-सीधे पढ़ लो या गौतम बुद्ध को सीधे-सीधे पढ़ लो या विपससना कर लेने से सच्चा ज्ञान मिल जाएगा, वे लोग या तो बहुत ही मासूम है या फिर बहुत ही बड़े धूर्त हैं।
कबीर या गौतम बुद्ध के साहित्य को सीधे-सीधे पढ़ने पर हजारों दिशाओं में हजारों बातें नजर आती हैं। उनके साहित्य में भयानक मिलावट भी की गई है, इसलिए सामान्य आदमी को यह पता लगाना मुश्किल होता है कि इनकी असली शिक्षा क्या है? ऐसे असमंजस में वे समाज में ऊंची जाति के लोगों मे प्रचलित बातों को ही गौतम बुद्ध या कबीर की असली शिक्षा मान लेते हैं। यही वह असल षड्यन्त्र और खेल है जिससे बाबा साहब अंबेडकर हमें बचाना चाहते हैं।
व्यंगकार- संजय श्रमण