कबीर जन्मदिन/संत कबीर से क्या सीखे आज के युवा ?

नाम- कबीर


पिता- नीरू


माता-नीमा


         


                चित्र : साभार गूगल से 


संत कबीर हमारे लिए एक जाना माना नाम है। इतिहास में ऐसे कम ही लोग हुए हैं जिन्होंने मनुष्य की सोच पर इतना गहरा असर डाला है। भारत में हुए महान विचारों को और क्रांतिकारियों में, संत कबीर का नाम बहुत ऊपर आता है। संत कबीर के बारे में जानना और समझना आज के समय में बहुत जरूरी है। संत कबीर के जीवन और रचनाओं से हमें बहुत सारी अच्छी बातें मिलती हैं। इन बातों का हमारे जीवन में बहुत उपयोग हो सकता है। अक्सर इतिहास में युद्ध करने वाले इंसानों का कत्ल करने वाले राजा महाराजाओं के बारे में पढ़ाया जाता है। लेकिन मुझे लगता है कि संत कबीर जैसे इंसानियत के मसीहाओं के बारे में जानना और समझना ज्यादा जरूरी है। खास तौर से आज जब हम चारों तरफ नफरत और हिंसा देख रहे हैं ऐसे समय मे संत कबीर की शिक्षाएं हमारे लिए ज्यादा उपयोगी होगा।


जन्म


संत कबीर जी का जन्म 1455 ईस्वी में लहर तारा गांव में हुआ था। एक जुलाहा परिवार में इनका लालन पालन हुआ था। इनके माता का नाम नीमा और पिता का नाम नीरू बताया गया है। "जुलाहा" उस समय की मुस्लिम बुनकर परिवार में आने वाली जाति थी जो कपड़े बुन कर अपना जीवन यापन किया करते थे। इसीलिए कई इतिहासकार और विद्वान इन्हे मुस्लिम मानते हैं। साथ ही कई दूसरे विद्वान इन्हे हिन्दू मानते हैं। लेकिन मुझे लगता है कि वे किसी धर्म की सीमा मे नहीं बांधे जा सकते। संत कबीर बचपन से ही जागरूक और जिम्मेदार थे। वे जब थोड़े बड़े हुए तब वे अपने पिता के साथ काम में हाथ बटाते थे। वे शुरू से ही बहुत तीव्र बुद्धि के थे वह हर बात में तर्क का प्रयोग करते थे। इस तर्क शक्ति की वजह से ही वे किसी भी बात पर जल्दी भरोसा नहीं करते थे। इसी कारण वे हर धर्म हर परंपरा के विश्वासों को तर्क की कसौटी पर परखते थे।


ज्ञान की भूख


संत कबीर बचपन से ही ज्ञान के प्यासे थे। उनके मन मे उस समय उपलब्ध शास्त्रों और ज्ञान को जानने की तीव्र इच्छा थी। ज्ञान की इतनी प्यास और योग्यता होने के बावजूद उन्हे व्यवस्थित रूप से शिक्षा का अवसर नहीं मिला। उस समय भारत के समाज मे जुलाहा और दलित समुदाय के लोगों को पढ़ने का अधिकार नहीं था। उस समय भारत मे धार्मिक अंधविश्वास और पाखंड काफी गहरा था। समाज मे ऊंच-नीच भेदभाव छुआछूत बहुत तेजी से फैल रहा था। संत कबीर दास जुलाहा जाति से थे इसलिए उन्हें बहुत जातीय अपमान सहना पड़ता था। यही स्थिति बहुत से रूपों मे आज भी बनी हुई है।


सदगुरु कबीर का अंधविश्वास के लिए आंदोलन


कबीर जी कर्मकांड,पाखंड एवं अंधविश्वास के सख्त खिलाफ थे। वे इन सभी के खिलाफ आवाज उठाना चाहते थे एवं दलितों और जुलाहों की आवाज बनना चाहते थे। इसीलिए उन्होंने उस समय की रूढ़िवादी परिपाटी को छोड़कर बिना किसी संगठित धर्म मे शामिल हुए अपनी बात आजादी से रखी। कई लोग कहते हैं कि कोई ब्राह्मण गुरु रामानंद ने उन्हे शिक्षा दी थी। लेकिन यह बात गलत है, संत रमानंद के बारे मे कहानी है कि वे कबीर को छूना या देखना भी पसंद नहीं करते थे। ऐसे मे यह समझा जा सकता है कि संत कबीर ऐसे किसी व्यक्ति को गुरु कैसे बना सकते हैं?


रुढियों के खिलाफ


संत कबीर ने अपने समय की रूढ़ियों को तोड़ने के लिए बहुत प्रयास किए। अपने काव्य और साखियों की रचना करते हुए उनकी भाषा बहुत ही सरल थी। लोगों को जगाने और समझाने की उनकी शैली मन को लुभाने वाली थी। वे आम जनता की भाषा मे बोलते थे और इसलिए जनता पर उनका अधिक प्रभाव था। आज भी भारत के सबसे गरीब और वंचित लोगों मे उनका प्रभाव बहुत गहरा है।


संत कबीर की शादी के बाद उन्हें एक पुत्र और एक पुत्री कि प्राप्ति हुई। उनके पुत्र का नाम कमाल और पुत्री का नाम कमाली था। कबीर अपनी बातो को दोहे के माध्यम से लोगों तक पहुंचाते थे चूंकि कबीर निरक्षर थे। इसलिए उन्होंने स्वयं ग्रंथ नहीं लिखे मुंह से बोले और उनके शिष्य उन्हें लिखा करते थे। वे कर्मकांड के विरोधी थे अवतार,मूर्ति, रोजा, ईद, मस्जिद मंदिर आदि को वे नहीं मानते थे। संत कबीर परमात्मा को मित्र माता, पिता ,और पत्नी के रूप में देखते थे। उन्होंने अपने पंथ को इस ढंग से सुनियोजित किया जिससे मुस्लिम मत की ओर झुकी हुई जनता सहज ही उनकी अनुयाई हो गई। उन्होंने अपनी भाषा सरल और सहज रखें ताकि वह आम आदमी तक पहुंच सके थे। इससे दोनों संप्रदायों के परस्पर मिलन से सुविधा हुई।


संत कबीर दास की शिष्यों ने उनकी वाणी को बीजक नाम के काव्य संग्रह में एकत्रित करके रखा था .इस काव्य संग्रह के मुख्यतः तीन भाग हैं. जिनका नाम साखी, सबद, रमैनी है-


साखी– साखी शब्द स-अखी या “आँख वाला” से बना है और इसका मतलब होता है सीधे सीधे देखना। साखी संग्रह नाम से जाने गए इस काव्य संग्रह में संत कबीर के अधिकतर दोह लिखे गए हैं। कहीं-कहीं पर सोरठा का प्रयोग भी किया गया है.


सबद– शब्द के प्रकार का गाने योग्य पद है। इस काव्य में कबीर ने प्रेम प्रसंग से संबंधित रचनाएं की हैं.


रमैनी– यह बीजक का तीसरा हिस्सा है और इसमें चौपाई छंद लिखी गई है


संत कबीर शुरू से ही कही सुनी बातों पर यकीन नहीं करते थे वह अंधविश्वास के सख्त खिलाफ थे। एवं उस समय के विद्वानों का कहना था कि जो काशी में मृत्यु पाते हैं वे स्वर्ग में जाते हैं और जो मगहर में मरते हैं वे नरक में जाते हैं इसी बात को झूठा साबित करने के लिए वह अपने वृद्धावस्था में मगहर चले गए और वहां पर अपना जीवन व्यतीत किया । कहा जाता है कि इसके बाद मगहर में ही 119 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया।


कबीर जी के जीवन से युवाओं के लिए प्रेरणा 


कबीर दास जी के जीवन से आज की युवा पीढ़ी को बहुत सी बाते सीखनी को मिलती है। जैसा कि आज वर्तमान स्थिति में देखने को मिलता है, कि युवाओं में यह मानसिकता बन गई है कि आलोचना बुरी बात है इसलिए वे किसी के मुख से स्वयं की कमी सुनना कतई पसंद नहीं करते है। आजकल के युवा नहीं चाहते कि कोई उनकी कमी निकाले। लेकिन जब कोई उनकी कमी निकाल देता है तो वे उसे बिल्कुल पसंद नहीं करते और उस आलोचक से दूरियां बना लेते है। इससे वे स्वयं का नुक़सान कर बैठते है। क्योंकि उन्हें जब कोई कमी नहीं बताएगा तो वे स्वयं को और अपने कमी को सुधारने का अवसर ही खो बैठेगा ।


जिस प्रकार एक पिता कभी भी अपने बालक या बालिका की तारीफ बहुत कम ही करता है और हमेशा उन्हें और बेहतर बनाने के लिए उनकी कमी बताता रहता है। तो वहीं एक बालक अपने पिता की बात सुनकर बुरा मान जाता है और वह गलती बार बार करता है। एक बालक कमी को सुधारने में लग जाता है और वह गलती दोबारा नहीं दोहराता है। इस तरह उस कार्य में उत्कृष्ट हो जाता है । इसलिए कबीर दास जी का ये दोहा युवा पीढ़ी को आत्मसात कर लेना चाहिए ये दोहा इस प्रकार है -


               निंदक नियरे राखिए,आंगन कुटी छवाय ।


               बिन साबुन पानी लगे, निर्मल करे सुभाय ।।



 


युवा विचारक और लेखक : नीरज बारिवा


अध्ययनरत - B.A.LL.B. (Hon.)