व्यंग/ भारत के धर्म, संस्कृति और मनोविज्ञान को समझने की कोशिश कीजिए।

युवा काफिला भोपाल-


एक ऑटो चालक से मैंने पूछा कि आजकल कितना कमा लेते हो? 


वो बोला कि हालत खराब है खास कमाई नहीं है, ऊपर से बच्चों की स्कूल की फीस और सब्जियों, दूध पेट्रोल के दाम ने जीवन नरक बना दिया है। 


मैने फिर पूछा कि क्या नोटबन्दी के बाद कोई फायदा हुआ है? 


वो बोला अपने को तो कोई फायदा नहीं हुआ ऊपर से भाइयों रिश्तेदारों के छोटे मोटे रोजगार भी बन्द हो गए लेकिन एक बात मस्त हुई कि अच्छे अच्छे करोड़पतियों की हवा और हेकड़ी निकाल दी इस नोटबन्दी ने, मजा आ गया। हज़ारो बेईमानों का पैसा डूब गया।
 
मैंने पूछा कि क्या आप किसी ऐसे बेईमान आदमी को जानते हैं जिसने नोट जलाए हैं या जिसका पैसा डूब गया हो?


वो बोला नहीं बाबूजी, मैं नहीं जानता ।


मैंने पूछा कि जब आपको कोई फायदा नहीं हुआ, परिवार का रोजगार चौपट हो गया, आपने किसी बेईमान को कंगाल होते नहीं देखा तो फिर आपको किस बात का मजा आ रहा है?


वो बोला कि ये सब तो मुझे समझ नहीं आता लेकिन सुना है कि बड़े बड़ों की हवा टाइट हो गयी है नोटबन्दी से।


कुछ समझे आप?


एक आम गरीब को सरकार के किसी कदम को लेकर अपने और अपने बच्चों की हालत की चिंता और समझ नहीं है। बल्कि उसे इस बात की खुशी है कि किसी और की हवा टाइट हो गयी है।


ये भारतीय मनोविज्ञान की एक टिपिकल जातिवादी और सामंती बीमारी है। अपना कोई फायदा हो न हो, दूसरे की खटिया खड़ी होते देखने के आनन्द में ही मगन हुए जा रहे हैं।


अब ऐसी जनता को अच्छे नेता और हुक्मरान मिल भी कैसे सकते हैं??


व्यंगकार- संजय श्रमण जोठे