◆ भारतीय सिनेमा का बदलता स्वरूप
◆ हमारे बौद्धिक विकास के कमी को दर्शाती हैं आजकल की फिल्में
◆ क्रिएटिव लोगों के आने से फिल्मों में होगा बदलाव
युवा काफिला, भोपाल-
आजकल लॉकडाउन के कारण लोग घर में बोरियत से बचने और टाइमपास करने के लिए भारतीय सिनेमा द्वारा बनाई फिल्मे देख रहे हैं क्योंकि हॉलीवुड की फिल्मे अधिकतर लोगों के विचारों से संबंध नही बना पाती। लेकिन बॉलीवुड की फिल्मे हमे वही आनंद देती है जिसके हम आदि हो चुके हैं। इस बारे में बात करना अब और ज़रूरी मालूम पड़ता है क्योंकि फिल्मों से हमारे मनोविज्ञान पर बहुत बुरा असर हो रहा है। तो क्यों न इस बारे में अब सटीक ढंग से बात की जाए।
हम इंसान हैं और अक्सर हम कल्पनाओ में जीते हैं, खासकर बच्चे और किशोर अवस्था के लोग जिनके मन में कुछ न कुछ बनावटी घटनाये चलती रहती हैं। इसमे कुछ गलत नही है बल्कि यह प्राकृतिक है। मैने यह लेख कल्पना से शुरू करना सही समझा क्योंकि इन फिल्मों टीवी सीरियल द्वारा खिलवाड़ इसी कल्पना के साथ होती हैं। हमारा भारतीय सिनेमा हमारे मनोवैज्ञान पर काफी गहरा असर करता हैं। इसकी शुरुआत हमारे जीवन में बहुत कम उम्र से होने लगती है। आठ या दस साल का बच्चा किसी रोमांटिक या एक्शन सीन का फैन हो जाता है और वह अभिनेता की जगह खुद को रख लेता है फिर कल्पना करता है की यह सब उसके साथ ही हो रहा हैं।
जैसे उदाहरण के लिए हम 2019 की फ़िल्म कबीर सिंह को ही ले सकते हैं। बहुत शर्म की बात है की यह फ़िल्म युवाओं को बहुत पसंद आयी। इससे आप समझ सकते हैं की युवाओं की मानसिकता कितनी सीमित है। इस फ़िल्म में लड़की के ह्यूमर, उसकी पसंद-नापसन्द, उसके फ्यूचर प्लान्स के बारे में कुछ नही बताया गया हैं। वह डॉक्टर बनी या नही बनी किसी को कुछ नही पता। हाँ, लेकिन कबीर सिंह घमंडी टाइप का है, उसे बहुत गुस्सा आता है,वह उसकी प्रेमिका के लिए लड़ाई करता है, वह सिगरेट बहुत पिता है, प्रेमिका की याद में शराब भी पिता है,वह फुटबॉल भी खेलता हैं, वह पढ़ाई भी करता है और डॉक्टर भी बन जाता है। अधिकतर युवाओं और बच्चों की नज़र में कबीर सिंह का किरदार बहुत डैशिंग और स्मार्ट है। मतलब शराब पीकर पागलपन करना,हर वक़्त गुस्सा करते रहना,सिगरेट पीना,प्रेमिका की याद में रोते रहना और दुखियाले गाने गाना एक हीरो का काम है।
यह बच्चों से ज़्यादा युवाओं को आकर्षित करता है। इस बीच बच्चे हर रात सोने से पहले कल्पनाओ मे जीना शुरू कर देते हैं और यह उनके जीवन का हिस्सा बन जाता है। इस तरह के खयालात बच्चों के लिए मज़ेदार तो होते हैं लेकिन उनके विचारों को पनपने का मौका नही देते हैं। अलग-अलग प्रकार के विषयों पर बुद्धिमत्तापूर्ण तरीके से विचार करना इनके लिए संभव नही हो पाता है। सिर्फ फिल्मी रोमांस के खयालात इनके दिमाग में चलते रहेंगे तो इनका बौद्धिक विकास सीमित रह जाएगा और यही बच्चे जब किशोर अवस्था में आएंगे तो कबीर सिंह जैसी फिल्मे ही पसन्द करेंगे।
बॉलीवुड के कारण अधिकतर बच्चों और युवाओं के मन में रोमांस एक बहुत ज़रूरी और ताकतवर चीज़ हो गया है। यह लोग जीवन में कामियाबी इसलिए हासिल करना चाहते हैं ताकि इन्हें एक सुंदर जीवन साथी मिल जाए। सुल्तान फ़िल्म में सलमान खान, अनुष्का शर्मा को इम्प्रेस करने के लिए पहलवानी सीखता है। सिर्फ कुछ महीनों में वह बहुत अच्छा पहलवान बन जाता है और आठ-दस साल मेहनत करने वाले पहलवानो को आसानी से हरा देता है। कुलमिला के "प्यार में बहुत ताकत होती है" वाली आइडियोलॉजी को बढ़ावा दिया गया है। आप चाहे कितनी भी मेहनत करलो अगर उस मेहनत के इर्द-गिर्द रोमांस न भटकता हो तो वह मेहनत व्यर्थ है। इस अनुसार आत्मनिर्भरता से लक्ष्य तय करने से ज़्यादा प्रभावशाली है लड़की इम्प्रेस करने के लिए कामियाब होना।
क्या आपने कभी सोचा है की लोग अपने गुस्से मे आकर करने वाले कारनामे बड़ी बहादुरी से क्यों सुनाते हैं?
इसका एक बहुत बड़ा कारण यह है की, कई दशकों से हमे ऐसी फिल्मे दिखाई जा रही हैं जिनमे किसी किरदार द्वारा गुस्से में की गयी प्रतिक्रिया को स्मार्टनेस से जोड़ा जाता है। बच्चों और सीमित विचारधारा वाले युवाओं को आप अक्सर इस तरह की गतिविधियों को समर्थन देते हुए पाएंगे। लेकिन इन युवाओं और फ़िल्म के किरदार में एक बड़ा फर्क आपको देखने को यह मिलेगा की वह हीरो गुस्से में आकर विलन की वाट लगा सकता है । लेकिन इनसे प्रेरित होने वाले युवा वहीं गुस्से में आकर वहीं प्रतिक्रिया देंगे जहां इनका पलढा भारी होगा या जिसके आगे इनका ज़ोर चलता होगा। पर इतना भी सोच पाना इन युवाओं के लिए काफी कठिन हो गया है,क्योंकि बॉलीवुड ने इन्हें कभी सिखाया ही नही की गुस्सा एक प्रकार की भावना है जिसके आवेश में आकर की हुई प्रतिक्रिया कुछ हद तक स्वाभाविक हो सकतीं है और इसमे बहादुरी वाला काम कुछ भी नही है। अंततः इस घटना को गर्व महसूस करते हुए बताना हमारे बौद्धिक विकास की कमी को दर्शाता है।
फिल्मों के कोई सेंस न बनाने वाले कबीर सिंह,राधे और चुलबुल पांडे जैसे किरदार को असल ज़िन्दगी में अपनाने वाले बच्चों और युवाओं को आसानी से भांप लिया जाता है। इनका गुस्सा होना, दुखी होना, किसी कारण से परेशान रहना इस तरह मालूम पड़ता है की यह अपने ही लोगों के बीच स्पेशल महसूस करने के लिए अपनी भावनाओ पर ज़रूरत से ज्यादा प्रतिक्रिया देते हैं और इस तरह दर्शाते है की उनका रवैया ही ऐसा है। बॉलीवुड द्वारा बनाई अधिकतर फिल्मो में आपने देखा होगा की अभिनेत्रियों का किरदार फ़िल्म में हीरो की प्रेमिका का ही होता है और किसी अच्छा डांस करने वाली मॉडल को सिर्फ आइटम नम्बर के लिए रखा जाता है। लेकिन हॉलीवुड में अगर आप देखेंगे तो आपको पता लगेगा की अभिनेत्रयों को रेसिडेंट ईविल,अवेंजर्स,जस्टिस लीग,फ़ास्ट & फ्यूरियस जैसी फिल्मो में उनको प्रेमिका के अलावा भी बहुत से अहम किरदार दिए जाते हैं। फ़िल्म के अनुसार वह प्रेमिका भी होती है तो उसको एक अलग पहचान दी जाती है सिर्फ प्रेमिका तक सीमित नही रखा जाता। ऐसा नही है की हॉलीवुड गलतियां नही करता, गलतियां उन्होंने भी कीं हैं। लेकिन वह गलतियां सुधारते भी हैं।
फ़िल्म किसी भी शैली(genre) की हो उसमे रोमांस और ताकतवर हीरो देना एक परंपरा है। एक ऐसा हीरो जो ड्रामा या कॉमेडी शैली की फ़िल्म का किरदार है वह भी अकेला सब को मारने की क्षमता रखेगा। उसकी एक प्रेमिका होगी जिसका कोई इतिहास नही होगा। जिसके जीवन में वह पहला और आखरी मर्द होगा जिसे वो पसन्द करती है।
उदाहरण के लिए आप दबंग,रॉउडी राठौर,वांटेड,सिंघम,तेरे नाम,एंटरटेनमेंट,बॉस,खिलाड़ी 786 जैसी फिल्मो को ले सकते हैं। बहुत ताकतवर किरदार उन फिल्मो में अच्छे लगतें हैं जिन फिल्मों की शैली एक्शन,फिक्शन,साइंस फिक्शन या एडवेंचर हो।
फिल्मो के कारण आम लोगों के बीच टीम वर्क की परिभाषा बदल जाती है। हमे अधिकतर फिल्मों दिखाया जाता है की बुरे लोग साथ मिलकर हीरो से लड़ने की प्लानिंग कर रहे होते हैं लेकिन वह हीरो अकेला सब कुछ करता है। इससे कहीं न कहीं लोगों की कल्पना से खिलवाड़ करते हुए यह संदेश दिया जाता है की साथ मिलकर काम सिर्फ बुरे लोग करते हैं। अच्छा आदमी तो अकेला ही अब कुछ करता है। लेकिन इसे सकारात्मक तरीके से बताने के लिए "आत्मविश्वास" शब्द का इस्तेमाल किया जाता है।
आत्मविश्वास शब्द फिल्मी और TV कलाकारों के लिए एक जादुई मणि का काम करता है। आत्मविश्वास शब्द का सहारा लेकर हानिकारक कोल्डड्रिंक्स और ज़ुबां केसरी जैसे विज्ञापन दिखाए जाते हैं। जिन चीजों का वह खुद इस्तेमाल नही करते और अपने बच्चों को भी नही करने देते, उन्ही चीजों का विज्ञापन वह बहुत अच्छे से करते हैं। इनके तो बच्चे भी बहुत कम उम्र से सेलिब्रिटी लाइफ को जीने लगते हैं। उदाहरण के लिए तैमूर अली खान को लिया जा सकता है। फ़िल्म इंडस्ट्री में नेपोटिसम के कारण अनन्या पांडे,सोनाक्षी सिंह,वरुण धवन, अर्जुन कपूर जैसे लोग फिल्मो में आ रहे हैं। सबसे गजब की बात तो यह है की इनके चाहने वालों की संख्या लाखों में है। गैंग्स ऑफ वासेपुर का "जब तक हिन्दोस्तान में सिनेमा है" वाला डायलॉग युहीं प्रसिद्ध नही हुआ।
अगर आप सोचतें हैं की फिल्में तो सिर्फ मनोरंजन के लिए होती हैं उनका असल ज़िन्दगी में कोई हस्तक्षेप नही है। तो आप गलत हैं। मनोरंजन मानव जाती के लिए अहम भूमिका निभाता है। मनोरंजन समाज का हिस्सा है और फिल्मे मनोरंजन की। लेकिन इसका हमारे मनोविज्ञान पर बहुत असर होता है।इतने दशकों से जनता का माइंडसेट अभिनेताओ पर इस तरह इस तरह बंध गया है की अब शाहरुख खान से साइंस फिक्शन मूवी की उम्मीद करना संभव ही नही है क्योंकि उसे तो रोमांस के लिये जाना जाता है। उसी तरह सलमान खान को भाईगिरी वाली फिल्मों के लिए जाना जाता है। अब इनसे कुछ क्रिएटिव करने की उम्मीद रखने से कोई फायदा नही। बॉलीवुड में चुनिंदा क्रिएटिव कलाकार है जिन्होंने सचमुच बॉलीवुड के घिसे-पीते ढर्रे को बदलने की कोशिश की है जैसे नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी, आमिर खान, आयुष्मान खुराना, विकि कौशल,राजकुमार राव और इरफन खान जो अब हमारे बीच नहीं हैं।
खैर जैसे-जैसे क्रिएटिव लोग इंडस्ट्री में कदम रखेंगे तो बदलाव तो आएगा ही। वैसे कई फिल्मो की आलोचनाएं भी होती है। ज़ाहिर सी बात है की लोगों में फिल्मो की समझ बढ़ रही है। जब जनता फिल्मों के प्रति जागरूक होगी तो बॉलीवुड के फालतू लोगो की छटनी अपने आप होगी और क्रिएटिव कलाकारों द्वारा किया गया काम पसंद किया जा रहा हैं।
विश्लेषक - वर्धमान जोठे (कक्षा 11)