राष्ट्रीय हिंदी पत्रकारिता दिवस/ अपने उद्धार के लिए हमें अपने अखबार चाहिए: डॉ आंबेडकर

◆ लेखन को जीवन का एक महवत्पूर्ण और अभिन्न अंग बनाना हैं


◆ हमें अपने अखबार चलाने होंगे


◆ सिटीजन जनर्लिस्ट को खोजे


◆ किसी विषयवस्तु पर विरोध होने पर अपनी बात और विरोध तुरंत दर्ज किया जाना आवश्यक हैं


◆ 20 वीं सदी के सर्वश्रेष्ठ पत्रकार डॉ आंबेडकर की लेखनी जरूर पढ़ें



युवा काफिला, भोपाल- 


भारतवर्ष की 20 वीं सदी की पत्रकारिता जगत में बाबा साहेब आंबेडकर द्वारा संचालित एवं संपादित समाचार पत्रों का इतिहास गौरवशाली रहा है। धनवान और संपन्न लोग पत्रकारिता को बुद्धि विलासिता और दुर्बल वर्ग के विरुद्ध अपनी दमनकारी एजेंटों की पूर्ति के लिए करते हैं, मगर बाबा साहेब की पत्रकारिता न केवल औपचारिकता की दृष्टि से सर्वोत्कृष्ट सिद्ध हो चुकी है बल्कि वास्तव में हैं भी। तभी तो लोक कल्याण के विचार को स्थापित और प्रचारित करने में भी अग्रणी रही है। बाबा साहेब की पत्रकारिता आंदोलन हम सभी को प्रेरित करता है। जो पत्रकारिता वे मुकनायक (गूंगो का नायक) नाम से आरंभ करते हैं उसका समापन वे प्रबुद्ध भारत नामक पत्रिका के साथ करते हैं। अत्यंत अल्प साधनों में मुकनायक से प्रबुद्ध भारत तक की यात्रा बहुत सफलता के साथ इतिहास के पन्नों में दर्ज करवाना अपने आप में बहुत बड़ी बात है। 


बाबा साहेब द्वारा चलाए गए समाचार पत्र-पत्रिकाएं-


मूकनायक (1920),बहिष्कृत भारत (1927), जनता(1930),प्रबुद्ध भारत ( 1956) ।


बाबासाहेब आंबेडकर ने दिनांक 31 जनवरी 1920 से मूकनायक नामक पाक्षिक प्रारंभ किया । उक्त समाचार पत्र संबंधी अपने मनोभाव व्यक्त करते हुए उन्होंने पहले अंक में कहा - "हमारे बहिष्कृत लोगों पर हो रहा अन्याय तथा भविष्य में होने वाले अन्याय की रोकथाम हेतु, वैसे ही भावी उन्नति के लिए विचार विनिमय करने हेतु समाचार पत्र जैसा अन्य कोई दूसरा स्थान नहीं है परंतु मुंबई प्रांत से निकलने वाले समाचार पत्र की ओर देखने पर ज्ञात होता है कि अधिकांश समाचार पत्र किस जाति विशेष का हित साधने वाले हैं । अन्य किसी जाति के कल्याण की उन्हें चिंता नहीं है । इतना ही नहीं कभी-कभी वे अतीत कारक प्रलाप करते दिखाई देते हैं । ऐसे समाचार पत्रों को हम चेतावनी देते हैं कि किसी जाति कि यदि अवनति हुई तो उसका कलंक दूसरी जाति पर बिना लगे नहीं रहेगा।"


समाज एक नौका की तरह है । जिस प्रकार नौका से यात्रा करने वाले यात्री ने यदि जानबूझकर दूसरों का नुकसान करने हेतु अथवा परेशान करने हेतु या मजा देखने हेतु या फिर अपने विध्वंसकारी स्वभाव के कारण नाव के पेंदे में छेद कर देता हैं । तब समस्त नौका के साथ-साथ उसे भी जल समाधि लेनी पड़ती है । उसी तरह एक जाति का नुकसान करने पर फिर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में नुकसान करने वाली जाति का भी अवश्य नुकसान होगा इसमें कोई संदेह नहीं है । अतः स्वहित साधने वाले समाचार पत्रों को दूसरों का नुकसान कर केवल अपना हित साधने की मूर्खता नहीं करनी चाहिए । यह बहुत ही खुशी की बात है कि मुंबई के कुछ समाचार पत्र दिन मित्र, जागरूक, डेक्कन-रयत, विजयी मराठा, ज्ञान प्रकाश,इंदु प्रकाश तथा सुबोध पत्रिका आदि समाचार पत्रों में बहिष्कृत समाचार के मुद्दों और प्रश्नों पर विचार विमर्श किया जाता है। 


 ब्राह्मणेत्तर जातियों के प्रश्नों पर जितनी भी सखोल चर्चा होती है, वैसी जगह बहिष्कृत जाति के समस्याओं को नहीं मिल पाती है । वह भी निर्विवाद सत्य है । ऐसी विकट परिस्थिति में हमारे प्रश्नों को उचित प्लेटफार्म प्राप्ति हेतु स्वतंत्र समाचार पत्र की आवश्यकता है , इस बात को कोई भी कबूल करेगा ।इस कमी को पूरा करने के लिए इस समाचार पत्र का जन्म हुआ है । विशेष तौर पर अछूतों के हित-अहित की समस्याओं का निराकरण करने हेतु इसकी पृष्टभूमि तैयार हुई हैं। मैं जानता हूं इसके पूर्व अछूतों की चर्चा करने वाले सोमवंशी मित्र, हिंदी नागरिक,विटाल विध्वंसक यह समाचार पत्र निकले परन्तु सब बन्द हो गए । परंतु पाठकों की ओर से उचित प्रोत्साहन मिलने पर मुकनायक बिना डगमगाए हुए साप्ताहिक स्वजनों धार का महत्वपूर्ण कार्य करते हुए उचित मार्ग दिखाएगा। यह आश्वासन देते हुए विश्वास के साथ अपना निवेदन करता हूं। 
प्रस्तुत लेख में बाबा साहेब द्वारा जाहिर संकल्प अधिक दिनों तक टिक नहीं पाया था। इस पर खेद होता है परंतु यह संकल्प पूरा नहीं हो पाया इसमें लेखक का दोष नहीं है । जिसे यह वास्तविक स्थिति ज्ञात है वह सब जानता है । समाचार पत्र प्रारंभ करने के पश्चात प्रस्तुत लेखक को मालूम हुआ कि इस तरह का लोक सेवा का कार्य स्वीकार करने पर उसके पास स्वतंत्र व्यवसाय होना आवश्यक है । इसी बात को ध्यान में रखते हुए वकालत का स्वतंत्र व्यवसाय किया । इसीलिए अपनी अधूरी पढ़ाई पूरी करने के लिए पुनः विलायत जाना पड़ा जाते समय साप्ताहिक की जिम्मेदारी अपने सहयोगी के हाथों देनी पड़ी । 
बाबा साहेेब को न केवल आशा थी बल्कि पूर्ण विश्वास था कि वापसी के पश्चात मुकनायक साप्ताहिक अच्छी व्यवस्था में दिखाई देगा, परंतु उनकी आशा बेकार साबित हुई दरअसल लंदन से निकलने के पूर्व ही समाचार पत्र की दुर्गति का समाचार प्राप्त हो चुका था। जिस कार्य को हाथ में लिया था उसका कुछ ही समय में विनाश हो गया। ऐसा देख उनका दुख स्वाभाविक था, इस विनाश के कारणों को जनता के समक्ष रखते हुए सत्य-असत्य का विश्लेषण करना बाबा साहब को जरूरी नहीं लगा। यह लेेेख लेखन से लगभग 6 वर्षों के पश्चात पुराने अध्याय को नए अध्याय के नाम से शुरू करने हेतु उनका स्पष्टीकरण अनुचित न था।
तब राजनीतिक सुधार संबंधी कानून अमल में नहीं आया था इसका अनुसरण करते हुए समाचार पत्रों की क्या आवश्यकता है? 


इसका संचालन करते हुए लेखक लिखते हैं कि इस देश के सृष्टि पदार्थों तथा मानव जाति के चित्रपट की और दर्शक के रूप में देखने पर ज्ञात होता है कि यह देश विषमता की खान है। हिंदू धर्म की यह विषमता जितनी अनुपम है उतनी ही निंदनीय भी है। इस विषमता अनुरूप होने वाले परस्पर व्यवहार केे कारण हिंदू धर्म हेतु शोभनीय नहीं है। 
बाबा साहेब कहते हैं -"कि हिंदू धर्म एक ऐसी चार मंजिला इमारत की तरह है । जिसमें ऊपर की मंजिल पर आने के लिए सीढ़ियां नहीं है अर्थात जिस मंजिल में जिसने जन्म लिया है उसे वही मरना होगा। निचली मंजिल का व्यक्ति कितना भी लायक क्यों ना हो फिर भी उसके लिए ऊपरी मंजिल में प्रवेश मना है तथा ऊपरी मंजिल का व्यक्ति कितने भी नालायक क्यों ना हो फिर भी उसे निचली मंजिल पर भेजने का किसी के पास कोई साहस नहीं है । स्पष्ट शब्दों में कहा जाए तो जाति - जाति में व्याप्त ऊंच-नीच की भावना, गुण-अवगुण के आधार पर नहीं है । ऊंची जाति में जन्मा व्यक्ति कितना भी हो उसे उच्च जाति में ही कहा जाएगा । उसी प्रकार नीची जाति में जन्मा व्यक्ति कितना भी विद्वान (गुणी) क्यों न हो उसे नीच ही कहा जाएगा। 


दूसरी बात यह है कि आपस में रोटी-बेटी का व्यवहार ना होने के कारण हर एक जाति में अपनेपन का अभाव है । निकट संबंधों की बात यदि एक तरफ रख दी जाए तो आपस में बाहें व्यवहार व्यास अमित नहीं है। कुछ का व्यवहार दरवाजे तक है जो जाति अस्पृश्य है उस जाति के व्यक्ति का स्पर्श हो जाने पर अन्य जाति का व्यक्ति अपवित्र हो जाता है । इस चोट के कारण बहिष्कृत जाति का अन्य जाति के लोगों से व्यवहार शायद ही हो पाता है । इस चोट के कारण रोटी-बेटी व्यवहार के अभाव में पराए पन की भावना को जागृत करते हुए छुआछूत नए चरम पर पहुंचा है। 
सत्ता तथा ज्ञान के अभाव में ब्राम्हणेत्तर तथा पिछड़े लोगों की उन्नति और उद्धव हुई है । यह एक निर्विवाद सत्य है परंतु उनके दुख में गरीबी का समावेश नहीं है। वे खेती,व्यापार, उद्योग तथा नौकरी कर अपना पेट पालते हैं परंतु इस सामाजिक विषमता के कारण इस बहिष्कृत समाज पर अति विपरीत प्रभाव पड़ा है । दुर्बलता दरिद्रता तथा अज्ञान के इस त्रिवेणी संगम में बहिष्कृत समाज फंसा हुआ है। दीर्घकाल से इस दासता में फंसे हुए होने के कारण उनमें हीन भावना उत्पन्न हुई है । आज जो हमारी स्थिति से हैं इससे अच्छी स्थिति हमारे भाग्य में नहीं है। इस घातक सोच को इन पतितो की नजरो के समक्ष लाने के लिए ज्ञान के समान दूसरा अंजन नहीं है । परंतु वह अंजन आजकल मिर्च मसाले की भांति खरीदना पड़ रहा है किंतु वह भी दरिद्रता के कारण दुर्लभ हो गया है। कई-कई तो खरीदने पर भी वह नहीं मिल पाता , वजह यह कि ज्ञान के मंदिरों में हर जगह अछूतों को प्रवेश मिलेगा ऐसा भी नहीं है।शिक्षा इतनी महंगी हो गई है दरिद्रता के गर्त में इसके माथे पर अस्पृश्यता का कलंक लगाकर धनार्जन के रास्ते बंद कर दिए हैं ।नौकरी,व्यापार,उद्योग-धंधे में इन्हें शायद ही प्रवेश मिल पाता है। भाग्य में यह सब कुछ होने के कारण इन्हें जमीन पर पड़े कंकड़ पत्थर खाने पढ़ते हैं।


कानून व्यवस्था सुधार के नियमों को लागू किया जा चुका है। अंग्रेजों की सत्ता कुछ मात्रा में उच्च जाति के हिंदुओं के हाथों में चली गई है । बहिष्कृत वर्ग के प्रतिनिधियों की बिल्कुल फरियाद में नहीं सुनते हैं, जिस प्रकार किसी जानवर को उसका निर्दयी मालिक कसाई के हाथों सौपता है, ठीक उसी तरह अछूत वर्ग के लोगों को इस माई-बाप सरकार ने उच्च जाति के हिंदुओं के अधीन कर दिया है । 6 वर्ष पहले की तथा आज की स्थिति की तुलना करने पर ज्ञात होता है कि 6 वर्ष पूर्व से वर्तमान की स्थिति ज्यादा सोचनीय है। यह सोचनीय स्थिति सबकी नजरों के सामने लाने के लिए तथा अन्याय अत्याचार से अपनी रक्षा करने के लिए पहले से कहीं अधिक आज समाचार पत्रों की आवश्यकता है । यह बात बहिष्कृत वर्ग के सभी लोगों को कबूल करनी पड़ेगी । सन 1930 के भारत के कानून में संशोधन कर 1929 में अंग्रेजों के हाथों में जो सत्ता सौंपी थी वह हिंदू लोगों के हाथों में दी जाएगी ऐसा अनुमान है। अगर ऐसा हुआ तब बहिष्कृत वर्ग के लोगों को उनकी संख्या के प्रमाण में प्रतिनिधित्व नहीं मिलेगा। तब यह समझना पड़ेगा कि उनकी उन्नति समाप्त हो जाएगी । यह वजह यह है कि ब्रिटिश सरकार की बिना भेदभाव की नीति को ऊंची जाति के हिंदू जन भी यथावत बनाए रखेंगे। इतनी शुद्ध तथा सात्विक उनके मन की विचारधारा नहीं बन पाई है अतः इस दुखद प्रसंग को यदि डालना हो तो आज से ही आंदोलन को प्रारंभ करना होगा और अपने उद्धार के लिए हमें अपने अखबार चलाने होंगे। हम इस कार्य में यश और सफलता को जरूर प्राप्त करेंगे। 


सिटीजन जर्नलिस्म  (नागरिक पत्रकारिता)- 


नागरिक पत्रकारिता वह है जो सार्वजनिक नागरिकों पर आधारित है "समाचार और सूचना एकत्र करने, रिपोर्टिंग, विश्लेषण और प्रचार प्रसार की प्रक्रिया में सक्रिय भूमिका निभाते हैं।" 


भारत में पत्रकारों के दो गुट हैं या फिर यह कह सकते हैं एक ही गुट है। वजह, एक गुट तो पत्रकारिता करता है लेकिन बाकी के बचे हुए लोग जिनके पास पत्रकारिता की डिग्रियां हैं, वे सिर्फ चाटुकारिता करते हैं।


मीडिया का बदलता स्वरूप- 


आज प्रेस की स्वतंत्रता खत्म होने और प्रेस पर पूंजीपतियों और राजनीति के प्रभाव के कारण ही लोग अब मेनस्ट्रीम मीडिया का साथ छोड़ रहे हैं। 2014 के बाद मानो ऑनलाइन वेब पोर्टल की बाढ़ आ गई है। लोगों ने अपनी फेसबुक,यूट्यूब और ट्विटर की वॉल को न्यूज़ देने का स्त्रोत बना दिया है।आज जैसे-जैसे सिटीज़न जर्नलिज़्म को बढ़ावा मिल रहा है, वैसे-वैसे इन चाटुकार पत्रकारों के मुंह पर तमाचा पड़ रहा है। मीडिया की खस्ता हाल के कारण ही आज युवा काफिला जैसे प्लैटफॉर्म जनता को पसंद आ रहे हैं।


भारत में वर्तमान युग न्यूज़ वेब पोर्टल का युग है, सिटीज़न जर्नलिस्म का युग है। लोग मिलकर नए-नए वेब पोर्टल्स बना रहे हैं, जिससे वह जनता को जानकारी दे सकें, क्योंकि न्यूज़ चैनल जानकारी नहीं प्रोपेगेंडा परोस रहे हैं। अब कुछ गिने चुने लोगों के काफी मेहनत के बाद सिर्फ मोबाइल फोन पर जानकारी मिल रही है। यह टेलीविज़न के अंत का दौर है और वाकई में जब तक चुनाव नहीं हो जाते, हमें टीवी देखना बंद कर देना चाहिए। वरना हम भी उस प्रोपेगेंडा का शिकार हो जाएंगे, जो सत्ता हमें परोसना चाहती है, पत्रकारिता का अंत करके।