कोरोना अलर्ट में पिताजी का डर

                            पिताजी का डर


           
साल था 1994 और मौसम था बरसात का। हमारा मन किया तो हम दिल्ली से कार चला कर बड़ौदा अपने छोटे भाई के घर पहुंच गए थे। एक सुबह हमने तय किया कि कार से ही सूरत चलते हैं। नाश्ता करके हमारा पूरा परिवार सूरत के लिए निकल पड़ा। 
उस दिन खूब बारिश हुई। इतनी की सड़क पर नदी बहने लगीं। पूरी सड़क डूब गई। सड़क के बीच का डिवाइडर नज़र आना बंद हो गया। पिताजी ने कहा कि आज वापस चलो। मौसम ठीक नहीं है। 
बहुत मुश्किल से हम कार वापस मोड़ पाए। कहीं कुछ नज़र नहीं आ रहा था। जिधर देखता पानी ही पानी। ऐसा लग रहा था कि हम नदी में कहीं फंस गए हैं। गाड़ी पानी में आधी डूबी थी। 
पिताजी ने मुझे निर्देश दिया कि संजय ध्यान रखना गाड़ी बंद नहीं होनी चाहिए। अगर गाड़ी बंद हो जाएगी तो खराब हो जाएगी। पानी इंजन में जा सकता है। चाहे जो हो, गाड़ी स्टार्ट रखने की कोशिश करना। 


                       
मेरी गाड़ी दो बार डिवाइडर पर चढ़ी। फंसी। पर मैंने इंजन बंद नहीं होने दिया और किसी तरह हम उस दिन वापस बड़ौदा लौट आए थे। रात भर बारिश हुई। पूरे शहर में पानी भर गया था। 
तब हमारी समझ में इतना ही आया था कि मौसम बरसात का है, बारिश तो होगी ही। 
दो दिनों बाद ख़बर आई कि सूरत से प्लेग की शिकायत आ रही है। 
प्लेग? मैंने प्लेग का नाम तो सुना था, पर इसे बहुत गंभीरता से मैंने नहीं लिया। मैंने हंसते हुए अखबार में छपी खबर पिताजी को पढ़ कर सुनाई कि अच्छा हुआ जो हम सूरत नहीं गए। वहां तो बारिश के बाद प्लेग की ख़बर आ रही है। पता नहीं प्लेग क्या होता है।
पिताजी चौंके थे। 
उन्होंने कहा कि बेटा, तुम लोग अभी दिल्ली निकल जाओ। अब हमें सूरत नहीं जाना। प्लेग बहुत ख़तरनाक बीमारी होती है। बीमारी नहीं, ये महामारी है।
“होती होगी। हमें क्या?”
“नहीं बेटा। ऐसा नहीं है। ये अभी सूरत में है। पर कब कहां पहुंच जाए कहा नहीं जा सकता। ये महामारी है। तुम दिल्ली लौट जाओ।”
मैंने पिताजी की आंखों में प्लेग का ख़ौफ देखा था। 
उन्होंने ज़ोर डाल कर मुझे दिल्ली भेज दिया। 
हम दिल्ली पहुंचे और कुछ ही दिनों बाद ही ख़बर आई कि सूरत में प्लेग महामारी फैल गई है। तब मैंने पहली बार दिल्ली के अख़बारों में पढ़ा था कि प्लेग से बचने के उपायों में एक उपाय ये भी लिखा था कि सूरत से आने वालों से दूर रहें। 
मैं बहुत हंसा था। मन ही मन सोचता था कि प्लेग से बचने में चूहों से दूर रहने की सलाह तो ठीक है लेकिन सूरत से आए लोगों से दूर रहने की सलाह क्यों?



मैंने पिताजी को बड़ौदा फोन किया। मैंने उन्हें दिल्ली के अख़बारों में छपे विज्ञापनों के बारे में बताया। पिताजी ने कहा था कि बिल्कुल सही छपा है बेटा। तुम लोगों ने प्लेग का नाम नहीं सुना। बहुत से डॉक्टरों ने तो इसकी पढ़ाई भी नहीं की है। ये बीमारी तो दुनिया से चली गई थी। पता नहीं कैसे लौट आई है। बेटा, ये बीमारी नहीं, महामारी है।
महामारी? 
मेरे पिताजी की मृत्यु प्लेग से नहीं हुई। दो साल बाद उनकी मृत्यु मलेरिया से हुई। 
लेकिन मेरे मन में प्लेग का ख़ौफ बैठ गया था। उस दिन पिताजी ने मुझे बताया था कि बहुत पहले लोग ऐसा सोचते थे कि प्लेग कभी सिंधु नदी को पार नहीं कर सकता है। पर 19वीं सदी में पहली बार प्लेग भारत पहुंचा था। इसने सालों साल भारत में अपना डेरा डाले रखा। 1815 में गुजरात के कच्छ में इसका आक्रमण हुआ था। और 1836 में पाली पहुंचा। ये उत्तर भारत पहुंचा था। और बेटा, ये एक बार आया तो गया ही नहीं। इसने बंगाल और मुंबई को खूब रौदा। शुरू में किसी की समझ में नहीं आया पर एक समय ऐसा भी आया था जब गांव में किसी एक को प्लेग होता तो पूरा का पूरा गांव वहां से लापता हो जाता। 
आप सोच रहे होंगे कि संजय सिन्हा डरा रहे हैं।
मैं डरा नहीं रहा। मुझे दो बातें कहनी हैं। दोनों बातें पिताजी की कही हुई हैं। 
पहली बात तो ये कि उस दिन सूरत के रास्ते में गाड़ी जब पानी में फंस गई तो उन्होंने मुझे समझाया था कि इंजन बंद मत होने देना। गाड़ी चाहे जहां फंसे पर कोशिश करना कि इंजन चलता रहे। नहीं तो इंजन में पानी घुस जाएगा और फिर गाड़ी खराब हो जाएगी।
दूसरी बात उन्होंने कही थी कि ये बीमारी नहीं महामारी है और प्लेग के लिए ये कल्पना गलत थी कि ये सिंधु पार नहीं कर सकता। 



आज मैं ये कहना चाहता हूं कि जनवरी में हमारे पास जब पहली बार चीन के वुहान से कोरोनावायर की ख़बर आनी शुरू हुई थी तो मैं अपने साथियों से इस पर चर्चा करता था। मैं कहता था कि ये महामारी है। मेरी बातों पर लोग यही कहते थे कि संजय सिन्हा इतना न डरो। ये चीन नहीं। भारत में ऐसी बीमारियां कुछ नहीं बिगाड़ सकतीं। लोग चुटकुले सुनाने लगे थे। मज़ाक उड़ाने लगे थे। बताने लगे थे कि भारत के लोगों से बीमारियां डरती हैं। 
पर मार्च तक कोरोनावायरस भारत पहुंच गया। 
शुरू में हमने ताली, थाली बजाई। गाना-बजाना भी हुआ। पर अब लग रहा है कि बीमारी गंभीर है। 
मैं अधिक नहीं कहूंगा। आज पिताजी की दूसरी बात की चर्चा करके अपनी बात खत्म करूंगा। वो बात भले उन्होंने गाड़ी के लिए कही थी पर मैं कहना चाहता हूं कि चाहे कितनी भी मुश्किल आए, अपने मन का इंजन  मत बंद होने दीजिएगा। मन में हौसला रखिए। लोगों के लिए समानुभूति रखिए। मन का इंजन एक बार बंद हो जाए फिर उसे स्टार्ट होने में बहुत मुश्किल आएगी। और हां, प्लेग को सिंधु पार करने में समय लगा था। पर एक बार जब वो आ गया था तो सालों साल रहा। करोड़ों लोग उसकी चपेट में आए। यही हाल कोरोनावायरस का है। 
हम टीवी पर जो ख़बरों में दिखलाते हैं, उसमें चाहे जितनी अतिशयोक्ति हो पर बीमारी सच्ची है। आंकड़े सच्चे हैं। पिताजी ने कहा था कि महामारी को गंभीरता से लेना चाहिए। ये समझने की भूल नहीं करनी चाहिए कि हमें कुछ नहीं हुआ तो कुछ हो नहीं सकता। ये विषाणु हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि ये आधे जीवित होते हैं, आधे मृत। जब तक हवा में हैं, मृत हैं। पर जैसे ही इन्हें मानव शरीर मिलता है, ये जीवित हो उठते हैं। ये किसी को नहीं पहचानते। उन्हें भी नहीं जो बुलेट प्रूफ गाड़ियों में घूमते हैं। 



इससे बचाव का उपाय ही इतना है कि इसे हम तब तक बहुत गंभीरता से लें, जब तक वैक्सिन नहीं आ जाता। जब तक इसका इलाज़ सचमुच नहीं आ जाता तब तक खुद को बचाए रखना ही इलाज़ है।


कहानीकार - संजय सिंहा