मैं मेहनतकश
मैं रोज जीता हूं,
दिन-रात रोज मरता हूं,
अंधेरी खोली में बमुश्किल रोशनी में,
चार और मेरे जैसों के साथ,
दिन-रात रोज मरता हूं,
मैं मेहनतकश दिहाड़ी मजदूर हूं।
बेहतर भविष्य के सपने लिए,
उम्मीदों का आसमान लिए इस बड़े शहर,
काम की तलाश में रोज मरा हूं - रोज जीया हूं,
मैं रोज जीता हूं,
बेहतरी की उम्मीद ही मेरी प्रेयसी है,
मरना ही मेरी नियति है,
और जीना मेरी मजबूरी,
मैं मेहनतकश दिहाड़ी मजदूर हूं।
मेरे बदन का मांस,
भट्टीयों के कोयले सा जल चुका है,
शरीर का फेफड़ा
चिमनी के धुए से चल चुका है
महतारी की दवा दारू,बाप का ऋदन
घरवाली की ख्वाहिशें
नन्हे कोपलों का कल,
मुझे मारकर भी मरने नहीं देता
मैं शर्मिंदा हूं हाथ कभी जो हंसीये से,
फसल निकाला करते थे,
तपती दोपहरी में भूख की कतार में हैं,
मैं गर्दन झुकाये,
खुद को कभी विपरा को,
नन्हे कोपलो को देखता हूं,
मुंह छिपाये खाना मांगता हूं,
मैं मजदूर हूं मैं शर्मिंदा हूं,
अपने गांव सूखे अकाल में एक जून को खाया है,
पर न कभी हाथ फैलाया हैं,
मैं शर्मिंदा हूं,
कोरट कहता है - तू बीमार है,
नहीं लौट सकता अपने गांव,
बताएं मुझे कोई,
कौन सा वतन किस रास्ते मेरा गांव,
जिस वतन को सीचा मैंंने,
वो मेरी पहचान मांगता है,
सरकारी खाते में जिंदा होने का प्रमाण मांगता है,
कौन हूं मैं गिरमिटियां,
शहरों को रोशन कर खुद अंधेरे में रहता है,
या वह रसूखदारों सफेदपोशों की लपलपाती,
जीभ पर अपना पसीना रखता है,
या गैस चेंबरों में जो अपना सीना रखता हैं,
ऐ सफेदपोश टीवी पर भाषण देता है,
तू क्या हमको मूरख समझता है,
हर पांचवे बरस मेरी झोपड़ी आता है,
पक्का मकान बनाने का वचन देता है,
महतारी के पांव छूता है,
हमें देश का भाग्यविधाता बताता है,
मंत्री त्यौहार में झोपड़े में दारू, मुर्गा पहुंचाता है, सालों का राशन खा जाता है,
पर अब तू ना आना,
मैं सड़कों पर हूं,
मौत से दो-चार करने को हूं,
मरकर भी जिंदा होने को हूं,
पर अब तू ना आना,
हंसिये की ताकत को तू न सह पायेगा,
हथौड़े के वार से तू ढह जायेगा,
जिंदा होकर भी मरा होने का प्रमाण पायेगा,
मैं मेहनतकश हूं
....✍️राहुल विद्रोही