बेचारा मजबूर/ अब तो शुतुरमुर्गी रवैया छोड़ दो साहब : मजबूर भारतीय

◆ मजबूर हैं भारत का आम नागरिक


◆ तिजोरी भरता बड़ा पेटू वर्ग


◆ अभी भी समय है संभाल ले सरकार



युवा काफिला, भोपाल-


अमीर की खोपड़ी में भी पेट है और गरीब की खोपड़ी में भी। दिमाग तो एक ने तिजोरी में और दूसरे ने रोटी की पोटली में रख रखा है ।
                  आज की विकट परिस्थितियों में देखने पर चीजें ज्यादा स्पष्ट दिखती है कि रोटी तलाशने वाला ही तिजोरी भरने में सबसे बड़ा सहायक रहा है, पर कभी अपना हिस्सा न मांग कर सिर्फ रोजी मांगी और तिजोरी वाला रोटी वाले की रोटी में ही कटौती कर तिजोरी भरता रहा है और कभी अपने अंतरात्मा मे भी हिस्सा मिल बाँट लें ये सोचा नहीं । 
अभी फिलहाल लग रहा है कि रोटी वाला हार रहा है, पर कुछ समय बाद जब रोटी वाला अपनी जमीन को तजव्वो देकर रोटी को ठुकराने लगेगा तो इन तिजोरी वालों की फैक्ट्री कौन चलायेगा ? समय की लाठी की आवाज नहीं होती पर मार अवश्य पड़ती है ।
                कभी भूखा रोटी की तलाश में जमीन छोडकर निकला गरीब, अब रोटी छोड़कर जमीन की तरफ जा रहा है। उसने कोई निवेश नहीं किया है । उसका निवेश तो उसका पसीना है जो सूख-सूख कर नमक बन चुका है और उधर तिजोरी ने इन्हीं रोटी की कीमत पर ही करोड़ों निवेश कर रखा है । अब जब न रोटी होगी, न पसीना, न नमक, तो उससे कमाया पैसा जो पास है वो तो ठीक है पर जो फैक्ट्री में लगाया, जो कर्ज लिया है ,फैक्ट्री बंद होने पर उसका क्या होगा। गरीब को भूखे सोने की भी आदत है , किसी का कर्जा नहीं चुकाना है, वो मरने से भी अब डरना बंद करता जा रहा है पर छप्पन व्यंजन खाने वाला,बैंको का कर्जदार तिजोरी ,अब तक " सबकुछ मेरा" कहने वाले की स्थिति रोटी वाले से भी बुरी होने वाली है ।
फिर जो अराजकता का सैलाब आयेगा वहां कितना भी मजबूत किला हो उसका ढहना अवश्यभावी होगा । भूखे लोग, मजबूर लोग, असहाय लोग और खोपड़ी में बैठी रोटी की पोटली जब उफान मारेगी तब जो सैलाब आयेगा तब क्या होगा ........जंगल में जब भोजन अनुपलब्ध होने लगता है तो जानवर आसपास के रिहायशी इलाकों में घुसने लगते हैं, नरभक्षी होने लगते हैं मारे भी जाते हैं ,पर जीना है तो मरने को तैयार रहना ही पड़ता है और यही " जंगलराज" कहलाता है। इसमें ताकतवर ही शिकार नहीं करता, बल्कि जिसको मौका मिलता है वो शिकार करता है और जिसकी संख्या ज्यादा होती है वो मरता तो है पर मारता भी है और ज्यादा मारता है । यही जंगलराज है और इसने आमद देनी शुरू कर दी है ।


गरीबों, भूखो को फिर ये नहीं पता होता कि क्या सही और क्या गलत? वो रोटी के साथ साथ बदले की चटनी भी खाना चाहता है । क्योंकि वो समझता तो पहले भी था कि उसकी पसीने से जो 100 रूपये तिजोरी ने कमाये हैं उसमें उसका भी हक है, हिस्सा है पर मजबूर था पेट को लेकर , भूख को लेकर, परिवार को लेकर, जो उसे कभी मिला ही नहीं और अब जब रोटी, भूख, परिवार से उसका मोह भंग होता जा रहा यानि उसे पता है कि रोटी मिलेगी नहीं, भूख मिटेगी नहीं और परिवार भी भूखा ही मरेगा तब....... .........वो अपने पिछले हिस्सों के साथ सबकुछ छिनने पर उतारू होगा तब................
अभी भी वक्त है जब सरकारें कुछ कदम सोच समझ कर उठाये ताकि गरीब को सचमुच भूखा न सोना पड़े। अभी तक तो कागजों पर ही वो भरपेट खाना खा खाकर मोटा हो रहा था और असलियत में बीच के दलाल मोटे हो रहे थे । ये वो लोग हैं जो न रोटी उगाते हैं न रोटी बनाते हैं पर सरकारों की बंदरबाट की वजह से रोटी खाते हैं वो भी घी चुपड़ी हुई  ।
इन अमीर गरीब के बीच भी एक ऐसा बहुत बड़ा तबका है जिसकी खोपड़ी में " तिजोटी" भरा हुआ है यानि वो रोटी की पोटली और तिजोरी दोनों रखता है । वो जब गरीब को बंटता है तो वहां गरीब बनके खड़ा हो जाता है और अमीर गड्डी दिखाता है तो उधर हो जाता है। वो गरीब को गरीब नहीं बल्कि जरूरतमंद समझकर उसका शोषण करने से नहीं चुकता और अमीर को अमीर नहीं समझता बल्कि मौके के तौर पर देखता है ।
आगे आने वाले सैलाब में लहर और जमीन की लड़ाई में यही पेड़ पौधे पहले उखडेगे और जमीन को अपनी जमीन पता पड़ जायेगी और लहर को अपनी, क्योंकि लहर को वापस लौटना ही होता है भले ही समय लगे ,गंदैला हो जाये।


और इसी सैलाब को रोकने का काम हमारी सरकारों का है जो वो बिलकुल नहीं कर रहीं बल्कि लहर को अपने हाल पर छोड़ दिया है और पेड़ पौधे, जमीन को अपनी।
अभी समय है सरकार लहर को सम्हाले और जमीन को भी बता दे कि उसकी जमीन तब तक ही है जब तक लहर उसे बहा न ले जाये और ये बीच में खड़े पेड पौधे को समझायें कि वो न जमीन से पंगा लें और न लहर से इसी में सबकी भलाई है ।


सबका हिस्सा मेहनत के हिसाब से हो, जरूरत के हिसाब से हो यही एकमात्र उपाय है जो इस कोरोना के लाकडाउन के खत्म होने से पहले हो जाना चाहिए वरना देर हो जायेगी क्योंकि इस कोरोना काल में भूख और मजबूरी से मौत ,बीमारी से मौत से काफी पीछे थीं, अब बराबरी कर रहीं हैं और अब भी अगर सुधार नहीं किया गया तो बीमारी से मौतों को काफी पीछे छोड़ देंगी और यही सैलाब की आमद होगी ।
शुतुरमुर्गी रवैया छोड़ दो साहब !!!


- पीयुदेव