अन्तर्राष्ट्रीय तिब्बत मुक्ति दिन/ स्वतंत्रता की ओर बढ़ता तिब्बत

युवा काफिला, विशेष-


23 मई तिब्बत पर चीन के औपचारिक कब्जे का दिन। चीन के इस कदम का तिब्बत और दुनिया के कई देशों में जमकर विरोध हुआ। इसके बावजूद इतिहास के पन्नों पर दर्ज यह दिन चीन के लिए बेहद खुशहाली भरा रहा है। हालांकि, पिछले कई दशकों से दलाई लामा के प्रयासों से यहां स्वतंत्रता की अलख जगाई जा रही है और देश की आजादी हासिल करने की जद्दोजहद अब भी जारी है।


सछ्वान विश्वविद्यालय के तिब्बती अध्ययन केन्द्र के प्रधान हो वेई ने कहा,“तिब्बत को विश्व में विभिन्न सभ्यताओं के आदान-प्रदान का एक 'क्रोस रोड' माना जाता है।



तिब्बत (Tibet) एशिया का एक देश है । जिसका क्षेत्रफल मुख्यतः 47000 वर्ग मील हैं। भूमि उच्च पठारी है। इसे पारम्परिक रूप से बोड या भोट भी कहा जाता है।
तिब्बत का पठार पूर्व में शीकांग से, पशिचम में कश्मीर से दक्षिण में हिमालय पर्वत से तथा उत्तर में कुनलुन पर्वत से घिरा हुआ है।
पठार पूर्वी एशिया की बृहत्तर नदियों हवांगहो, मेकांग आदि का उद्गम स्थल है, जो पूर्वी क्षेत्र से निकलती हैं। 
जलवायु की शुष्कता उत्तर की ओर बढ़ती जाती है एवं जंगलों के स्थन पर घास के मैदान अधिक पाए जाते है। जनसंख्या का घनत्व धीरे-धीरे कम होता जाता है। कृषि के स्थान पर पशुपालन बढ़ता जाता है। साइदान घाटी एवें कीकोनीर जनपद पशुपालन के लिये विशेष प्रसिद्ध है।
 इसके प्रायः सम्पूर्ण भाग पर चीनी जनवादी गणराज्य का अधिकार है जबकि तिब्बत सदियों से एक पृथक देश के रूप में रहा है। यहाँ के लोगों का धर्म बौद्ध धर्म की तिब्बती बौद्ध शाखा है तथा इनकी भाषा तिब्बती है। चीन द्वारा तिब्बत पर चढ़ाई के समय (1955) वहाँ के राजनैतिक व धार्मिक नेता दलाई लामा ने भारत में आकर शरण ली और वे अब तक भारत में सुरक्षित हैं।


सम्राजवादी अंग्रेजों ने यहां भी अपना शासन स्थापित करना चाहा और दक्षिण पूर्व एशिया में अपना प्रभुत्व स्थापित करने में सफलता प्राप्त की, परंतु 1788-1792 ई0 के गुरखों के युद्ध के कारण उनके पैर यहां नहीं जम सके। परिणामस्वरूप 19वीं शताब्दी तक तिब्बत ने अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थिर रखी। हालांकि इसी बीच लद्दाख़ पर कश्मीर के शासक ने तथा सिक्किम पर अंग्रेजों ने आधिपत्य जमा लिया। अंग्रेजों ने अपनी व्यापारिक चौकियों की स्थापना के लिए कई असफल प्रयत्न किया।


नेपाल के जीत की कहानी के साथ चीन का प्रभुत्व


इतिहास के पन्नों में दर्ज है कि तिब्बत को दक्षिण में नेपाल से कई बार युद्ध करना पड़ा और नेपाल ने इसे हराया भी। नेपाल और तिब्बत की संधि के अनुसार तिब्बत को हर साल नेपाल को पांच हजार नेपाली रुपये हर्जाना भरना पड़ा। इससे परेशान होकर नेपाल से युद्ध करने तिब्बत ने चीन से सहायता मांगी। चीन के सहायता से उसने नेपाल से छुटकारा तो पा लिया, लेकिन इसके बाद 1906-07 ई. में तिब्बत पर चीन ने अपना अधिकार जमा लिया और याटुंग ग्याड्से एवं गरटोक में अपनी चौकियां स्थापित कर लीं।


स्वतंत्रता की ओर


1912 ई. में चीन से मांछु शासन अंत होने के साथ ही तिब्बत ने खुद को पुन: स्वतंत्र राष्ट्र घोषित कर दिया। सन् 1913-14 में चीन, भारत एवं तिब्बत के प्रतिनिधियों की बैठक शिमला में हुई, जिसमें इस विशाल पठारी राज्य को भी दो भागों में विभाजित कर दिया गया।


 


 


सन् 1933 ई. में 13 वें दलाई लामा की मृत्यु के बाद से बाह्य तिब्बत भी धीरे-धीरे चीनी घेरे में आने लगा। चीनी भूमि पर लालित-पालित 14 वें दलाई लामा ने 1940 ई. में शासन भार संभाला। 1950 ई. में जब ये सार्वभौम सत्ता में आए तो पंछेण लामा के चुनाव में दोनों देशों में शक्तिप्रदर्शन की नौबत तक आ गई एवं चीन को आक्रमण करने का बहाना मिल गया। 1951 की संधि के अनुसार यह साम्यवादी चीन के प्रशासन में एक स्वतंत्र राज्य घोषित कर दिया गया।


इसी समय से भूमिसुधार कानून एवं दलाई लामा के अधिकारों में हस्तक्षेप एवं कटौती होने के कारण असंतोष की आग सुलगने लगी, जो क्रमश: 1956 एवं 1959 ई. में जोरों से भड़क उठी। हालांकि बलप्रयोग द्वारा चीन ने इसे दबा दिया। अत्याचारों, हत्याओं आदि से किसी प्रकार बचकर दलाई लामा नेपाल पहुंच सके। इन दिनों वे भारत में रहकर चीन से तिब्बत को अलग करने की कोशिश कर रहे हैं। अब सर्वतोभावेन चीन के अनुगत पंछेण लामा यहाँ के नाममात्र के प्रशासक हैं।