पुस्तक दिवस/पुस्तक दिवस पुस्तकों के लिए नहीं है ताकि वे विश्व को पा सकें, बल्कि विश्व के लिए है ताकि वह पुस्तकों को पा सके - संजय श्रमण

आज विश्व पुस्तक दिवस है 


यह दिवस पुस्तकों के लिए नहीं है ताकि वे विश्व को पा सकें, बल्कि विश्व के लिए है ताकि वह पुस्तकों को पा सके। 


जब ज्योतिबा फूले ने किताबों से दोस्ती की तो उनके भीतर ज्योति उमगने लगी, उनका दीपक जलने लगा था। जब बाबा साहब ने पहली बार किताबों का संग पाया तब उनके भीतर अचानक कुछ उगने लगा – एक नया सूर्य जो हजारों साल के अंधकार को मिटा देने के संकल्प से भरा हुआ था। 


जब ज्योतिबा इन किताबों का सार लिए अपने लोगों की तरफ बढ़े तो ठिठक गए, जब बाबा साहब अपने लोगों की तरफ अपनी ही रची किताबें लेकर चलने लगे तो उनके पैर भी ठिठक गए। 


ज्ञान के आनंद और उमंग से भरे ये कदम अचानक क्यों ठिठक गए? 


उन्होंने देखा कि उनके अपने ही लोग इस ज्ञान का तिरस्कार करके पीठ फेरने लगे हैं। उनके अपने बच्चे इस अमूल्य उपहार से मुंह मोड़ने लगे हैं।  


यह देख ज्योतिबा और बाबा साहब सोच मे पड़ गए, क्या ज्ञान हमारे कदमों को कमजोर बनाता है? क्या सूर्य का प्रकाश हमें दृष्टि देने की बजाय अंधा कर देता है? या फिर सच मे यह हमें बेहोशी की बहिश्त से निकालकर बाहर फेंक देता है? 


मनुष्य जाति के सामूहिक अवचेतन और उसके क्रम विकास मे सावधानी से झाँकिए, आपको अज्ञात के समंदर से ज्ञात की तलैया को समृद्ध करने के लिए हजारों खूबसूरत हाथ बढ़ते हुए नजर आएंगे। ये हाथ जब धरती के करीब होते हैं तो किताब की शक्ल मे बदल जाते हैं। ये हाथ काव्य के हैं, दर्शन के हैं, विज्ञान के हैं और इनके साथ ऐसे ही न जाने कितने हाथ उस अज्ञात के आयाम से ज्ञात की तरफ बढ़ते हैं।


ठीक उसी तरह जैसे आकाश से उगते सूर्य की किरणें तमस मे सोई धरती के स्वर्ण शृंगार के लिए आगे बढ़ती हैं। ज्ञान को करोड़ों प्रष्ठों मे सहेजे हजारों हाथ किताब बनकर धरती की तरफ सदा से बढ़ते आए हैं। लेकिन यहाँ उस ज्ञानराशि को स्वीकार करते हुए, उसे अपना बनाते हुए अधिकतम मनुष्य डरते हैं। 


ये मनुष्य न केवल ज्ञान से डरते हैं बल्कि उस ज्ञान को ला रहे उन हाथों से भी डरते हैं। 


इसीलिए वे उन किताबों से भी डरते हैं। 


सिर्फ आसमानी या अपौरुषेय किताबों से ही नहीं बल्कि अपने ही बीच जन्मे अपने ही जैसे लोगों की किताबों से भी डरते हैं, सिर्फ तोरात इंजील और ज़बूर से ही नहीं बल्कि धम्मपद और संविधान की किताबों से भी डरते हैं। 


कुछ मनुष्य इस बात से डरते हैं कि ये किताबें सभी तक पहुँच गयीं तो उनके गुलाम विद्रोह कर देंगे। शेष मनुष्य इस बात से डरते हैं कि उन तक ये किताबें पहुँच गयीं तो बेहोशी की बहिश्त मे जो राहत मिलती आई है वह खो जाएगी। 


एक तरफ वे मुट्ठी भर लोग हैं जो दूसरों की बदलाहट की संभावना से डरे हुए हैं, दूसरी तरफ वे करोड़ों लोग हैं जो अपने भीतर बदलाव की जिम्मेदारी से डरे हुए हैं। 


अब किसका डर अधिक डरावना है? किसने ज्योतिबा या बाबा साहब के कदमों को रोक दिया है? यह कैसे तय किया जाए?


मेरी बात आप मान सकेंगे ? 


सीधे सीधे कह दूँ तो सुन सकेंगे?


स्वयं मे बदलाव की जिम्मेदारी का जो भय है, वह कहीं अधिक बड़ा है। दूसरों मे बदलाव की संभावना का भय बहुत छोटा है। इसीलिए बड़ा भय एक बड़े भूभाग मे इतनी बड़ी आबादी को बड़ी आसानी से काबू मे किये हुए है। इसीलिए ज्योतिबा या बाबा साहब के अपने लोग अपने ही बड़े भय से भयभीत होकर अपने को छोटा बनाए हुए हैं। 


इसीलिए बड़े भय से भयभीत करोड़ों लोग छोटे भय से भयभीत मुट्ठी भर लोगों के गुलाम हैं। 


इसीलिए गौतम बुद्ध, ज्योतिबा या बाबा साहब की किताबों से खुद उनके लोग डरे हुए हैं, इसलिए नहीं कि ये किताबें उन्हे कुछ नया दे देंगी, बल्कि इसलिए कि ये किताबें उनसे उनका पुराना सब कुछ छीन लेंगी। 


गुलामी और अंधेरे की सीलन भरी गुफाओं मे धरती पर रेंगने का सुख – ये किताबें छीन लेंगी 


एक आलसी मन जो मसीहा का इंतजार करता है उस इंतजार का सुख – ये किताबें छीन लेंगी 


दुख के दलदल मे घिरे हुए सदा ही दूसरों पर जिम्मेदारी डालने का सुख – ये किताबें छीन लेंगी 


ये सारे सुख अगर छीन लिए जाएँ तो पहले से ही कंगाल और पीड़ित मन के पास क्या बचा रह जाएगा? इसीलिए हम बुद्ध, ज्योतिबा और बाबा साहब की किताबों से नहीं बल्कि उनकी तस्वीरों से प्रेम करते हैं। इसीलिए हम उनकी शिक्षाओं से नहीं बल्कि उनकी मूर्तियों से प्रेम करते हैं। क्योंकि तस्वीरें और मूर्तियाँ ठीक वही बातें दोहराती हैं जो हमें पहले से पता हैं, कोई भी तस्वीर या मूर्ति हमें वह बात नहीं सिखा सकती जो हमें पहले से पता न हो। 


इसीलिए तस्वीरे और मूर्तियाँ हमें एक सुविधाजनक ज्ञात के दलदल मे फँसाये रखती हैं और किताबें उस ज्ञात से परे एक चुनौतीपूर्ण और नए ज्ञान की तरफ लिए चलती हैं


ज्ञात के दलदल को छोड़कर अज्ञात के आकाश मे उड़ने की कल्पना ही डर पैदा करती है। इसी डर ने ज्योतिबा और बाबा साहब के कदमों को रोक दिया है। इसी डर ने उनकी ज्योति और उनके सूर्य को आप तक पहुँचने से रोक दिया है।  


आज आप खुद तय कीजिए कि अज्ञान के आनंद और ज्ञान की चुनौती के बीच आपको क्या पसंद है? आज आप खुद तय कीजिए कि खुद जिम्मेदार बनने और दूसरों पर जिम्मेदारी डालने के बीच आपको क्या पसंद है? आज आप खुद तय कीजिए कि ज्ञात के दलदल मे फसाये रखने वाली मूरत और अज्ञात की तरफ ले चलने वाली किताब के बीच आपको क्या पसंद है?


- संजय श्रमण