मनोरंजन / लियो टॉलस्टॉय की भारत यात्रा 

◆ यह पुराना व्यंग्य पढिए और तनाव दूर कीजिए 


◆ टॉलस्टॉय की भारत यात्रा


युवा काफिला, भोपाल- 


लियो टॉलस्टॉय एक बार भारत आये. उत्तर भारत की सुरम्य हिमालय की वादियों में देहरादून के एक गेस्ट हाउस में रुककर कुछ दिन तक हिमालय का सौंदर्य निहारने की उनकी इच्छा थी. मोस्को से दिल्ली की फ्लाईट ली और लैंड करते ही एक टेक्सी बुक करके वे सीधे देहरादून निकल पड़े. वहां पहुंचकर गेस्ट हाउस में चेक इन किया और रात का भोजन खाकर सो गये.
सुबह का अलार्म बजते ही वे उठ खड़े हुए. 


हिमालय के सूर्योदय को देखना उनका पुराना सपना था. 


वे तैयार होकर सुबह सैर को निकले. थोड़ी देर चलते हुए वे एक ऊँचे और विस्तृत मैदान में पहुंचे जहां से पूर्व की तरफ का विस्तृत आकाश नजर आ रहा था. हिमालय के उत्तुंग शिखरों के पीछे से सूर्य उगने की कोशिश कर रहा था. आसपास फ़ैली भांग और चरस की झाड़ियाँ लहलहा रही थीं. सूर्य की मद्धम रश्मियाँ भांग के कोमल पत्तों और फूलों पर पड़ रही थीं. इसी समय आसपास के पेड़ों पर बसे नन्हे पक्षी अपने घोसलों से चहकते हुए निकल रहे थे. इस सब की मंद मंद खुशबु और कलरव वातावरण में फ़ैल रहा था. टॉलस्टॉय इसे देखकर प्रसन्न मुद्रा में कुछ देर वहीँ ठहर गये.


अचानक इन कोमल पत्तों फूलों के पीछे से किसी इंसान द्वारा कुदरती हवा छोड़ने की अशोभन आवाज आई और युगों युगों के कुपित कब्ज से जन्मी सडांध उठी. दो चार सेकण्ड में ही सारा नजारा और आबोहवा बदल गयी. टॉलस्टॉय समझ नहीं पा रहे थे कि देवभूमि की हरी भरी बगिया में ये विस्फोट कहाँ से हुआ? अपनी दाढ़ी खुजाते हुए उन्होंने पत्तियों के झुरमुट के पीछे झांका. गौर से देखा तो वहां एक उभरी हुई चट्टान पर एक सिद्ध योगी बैठकर टट्टी फरागत कर रहे हैं. टॉलस्टॉय को देखते ही वे योगी जी तनिक लजाते हुए किन्तु जोर से बोले ‘हेल्लो झंटलमेन... भाट इज यूवर नेम प्लीज... माई नेम इज विश्वगुरु’. 


टॉलस्टॉय सुना अनसुना करके कुछ सकुचाते हुए आगे बढ़ गये. इतने में पीछे से विश्वगुरु अपनी धोती बांधते हुए चले आ रहे थे. वे टॉलस्टॉय के कदम से कदम मिलाकर साथ साथ चलने की कोशिश करने लगे लेकिन जल्द ही हांफने लगे. टॉलस्टॉय ने अपनी रफ़्तार धीमी की और मुड़कर उनकी तरफ देखते हुए बोले ‘मुझे क्षमा करें कि मैंने आपके ‘उन नाजुक क्षणों’ में व्यवधान डाला’. 


इस पर विश्वगुरु ने कहा ‘अरे छोडिये भी... हम तो यूं ही खुले में छोड़ते रहते हैं... आप साहित्यकार लोग भी न बंद दिमाग के होते हैं ...हर चीज दिल पर ले लेते हैं... अरे यहाँ तो यह रोज़ का काम है. इन्ही व्यवधानों के बीच घनी झाड़ियों में अक्सर कई सिद्धपुरुष एकसाथ बैठकर तत्वचर्चा भी करते हैं और लगे हाथ राजनीती और अर्थव्यवस्था के गणित भी सुलझा लेते हैं. आपको आपको नोटबंदी इत्यादि नहीं मालुम क्या?’ 


इस प्रश्न की विचित्रता पर विचार करते हुए टॉलस्टॉय बोले ‘महोदय... हम तो ऐसे एकांत के क्षणों में सचमुच ही अकेले होते हैं, कभी मन किया तो कोई अखबार या किताब रख लेते हैं हाथ में, ऐसे विद्वत समूह से तत्वचर्चा करने का वहां कोई अवसर ही नहीं आता’. टॉलस्टॉय के उत्तर पर जोर से हँसते हुए विश्वगुरु बोले ‘यही तो फर्क है पश्चिम और पूर्व में महाशय... हम वसुधैव कुटुम्बकम को मानते हैं... इकट्ठे बैठते हैं और इकट्ठे ही एक सुर में तान छेड़ते हुए सब्जी बाजार से लेकर संयुक्त राष्ट्र और कश्मीर से लेकर क्वांटम फिजिक्स तक की सारी चर्चाएँ निपटाते हुए खुद भी निपट लेते हैं’. इस उत्तर से टॉलस्टॉय बड़े प्रभावित हुए. इतनी विराट समावेशी संवाद और विमर्श की शैली से परिचित होते हुए मन ही मन वे बड़े आश्चर्य से भर गये. विश्वगुरु एक हाथ से कमंडलु पकडे कान पर पवित्र सूत्र लपेटे टॉलस्टॉय के साथ चले जा रहे थे. विश्वगुरु मार्ग में चलते हुए कई फूलों और पत्तियों के औषधीय गुणों के साथ सिद्ध मन्त्रों और योग आसनों की व्याख्या करते जा रहे थे. टॉलस्टॉय थोड़ी ही देर में विश्वगुरु के ज्ञान के सम्मुख स्वयं को दरिद्र अनुभव करने लगे. विश्वगुरु उनसे कुछ जानना ही नहीं चाहते थे इसलिए टॉलस्टॉय को अपनी प्रतिभा दिखाने का मौक़ा भी नहीं मिल रहा था. बड़ी देर तक विश्वगुरु के प्रवचन सुनते हुए वे साथ साथ चलते रहे.


कुछ देर बाद विश्वगुरु ने टॉलस्टॉय से पूछा ‘आप कौन हैं, किस देश से पधारे हैं, और क्या करते हैं महाशय?’ यह प्रश्न सुनकर टॉलस्टॉय ने राहत की सांस लेते हुए उत्तर दिया ‘मैं लीयो टॉलस्टॉय हूँ, मैं रशिया से आया हूँ और मैं एक लेखक हूँ’. यह सुनते ही विश्वगुरु ने तपाक से दूसरा प्रश्न दागा ‘अच्छा तो वो वार एंड पीस आपने ही लिखा है क्या?’ टॉलस्टॉय अपनी सबसे महान रचना की चर्चा छिड़ते ही बड़े प्रसन्न हुए और गर्व से बोले ‘हां महोदय वह मेरी ही रचना है... क्या अपने पढी है?’ 


यह प्रतिप्रश्न सुनकर विश्वगुरु कुछ असहज हो गये फिर सडक किनारे से तुलसी के पत्ते तोड़कर उन्हें चबाते हुए बोले ‘हाँ...हाँ... क्यों नहीं... हमने सारी किताबें पढ़ीं हैं... हम झाड़ियों में बैठकर ही नहीं बल्कि ग्रंथालयों में बैठकर भी सकल जगत के शास्त्रों के अध्ययन और विमर्श करते रहे हैं.’ यह उत्तर सुनकर टॉलस्टॉय और आत्मविश्वास से भर गये. प्रसन्न मुख से उन्होंने पूछा ‘अच्छा तो आपको वार और पीस में सबसे अच्छा क्या लगा?’ विश्वगुरु अब पहले से अधिक असहज महसूस करने लगे. लेकिन संभलते हुए बोले ‘हमें उसमे वार और पीस दोनों ही अच्छे लगे, कभी वार कभी पीस... इस तरह जीवन में सब कुछ बारी बारी से आता रहता है... आपके इसी उपन्यास पर यहाँ कभी ख़ुशी कभी ग़म फिल्म भी बन चुकी है... आपको नहीं मालूम क्या?’ 


अब चौंकने की बारी टॉलस्टॉय की थी, उन्हें पता ही नहीं कि उनके उपन्यास पर भारत में कोई फिल्म भी बन चुकी है. वे उत्सुकता से विश्वगुरु जी से इस फिल्म के बारे में प्रश्न पूछने लगे. विश्वगुरु भी अपनी सनातनी प्रवचन की मुद्रा में आ गये और उत्तर देने लगे. टॉलस्टॉय ने पूछा ‘हाँ तो महोदय आप उस फिल्म की बात बता रहे थे..’ विश्वगुरु बोले ‘अरे हाँ ... बड़ी अद्भुत फिल्म है हमने कई सिद्ध योगियों के साथ उन्ही झाड़ियों में बैठकर मोबाइल पर देखी थी... उसमे जीवन के विरोधाभासों का बड़ा सहज वर्णन किया गया है...’ 


यह सुनकर टॉलस्टॉय पुलकित हुए और बोले ‘जी हाँ ... मेरे उपन्यास में भी यही सब है... मैंने जीवन के विरोधाभासों और सुख दुःख को हर प्रष्ठ पर बड़े प्यार से सजाया है’ इस पर विश्वगुरु बोले ‘यहीं आप हमसे पीछे रह जाते हैं... सजाने से कुछ नहीं होता... बजाना भी पड़ता है...आपके उपन्यास में कोई आइटम सांग था या नहीं?’ यह प्रश्न सुनकर टॉलस्टॉय चौंके और तपाक से उन्होंने पूछा ‘ये आइटम सांग क्या होता है महोदय... ये साहित्य की या गीत की कोई नयी विधा है क्या?’


इस मासूम से सवाल को सुनकर विश्वगुरु ठहाका लगाकर जोर से हँसे. हँसते हँसते उनके पेट में बल पड़ गये और वे झुकते हुए आँखें चौड़ी करके टॉलस्टॉय की तरफ दया भाव से देखने लगे. टॉलस्टॉय का सारा गर्व भाव वहीं पगडंडी पर ही चकनाचूर हो गया. विश्वगुरु के हंसने के साथ ही पगडण्डी के दोनों तरफ फ़ैली भांग की झाड़ियों के पीछे से भी कई अन्य मनुष्यों के हंसने की आवाजें आने लगीं. टॉलस्टॉय की दुबारा हिम्मत नहीं हुई कि इन झाड़ियों में झांककर देंखें. वे वहीँ खड़े खड़े फिर से स्वयं को दीन और अज्ञानी अनुभव करने लगे. फिर उम्मीद से भरकर विश्वगुरु कि तरफ मुड़े और कुछ पूछने लगे. 


‘ये आइटम सांग क्या होता है महोदय ... कृपया हमें बताइये’. यह सुनकर विश्वगुरु और जोर से हँसे लेकिन अपनी हसी रोकते हुए बोले ‘अरे लेखक महाशय आपको इतना भी नहीं मालूम... हमारा तो बच्चा बच्चा जानता है इसे... सडक से लेकर संसद तक आइटम सॉंग ही तो चलता है इस देश में...इन झाड़ियों में बैठे किसी भी बच्चे या युवक को खड़ा करके पूछिए वो आपको आइटम सांग की परिभाषा और नमूने सब इकट्ठे सूना देगा...’. 


यह सुनते ही टॉलस्टॉय जैसे दस गज जमीन के नीच धँस गये. वे सोचने लगे कि इस महान साहित्यिक विधा को इन झाड़ियों में बैठे सामान्य व्यक्ति भी जानते हैं तो निश्चित ये सभी लोग परम ज्ञानी हैं यह ज्ञानीजनों की पुण्यभूमि है. संभवतः मुझे इनसे बहुत कुछ सीखना है बाकी है. अपने बुढापे को देखकर और इस महान ज्ञान राशि का समुद्र सामने देखकर वे निराश हुए कि अब उम्र भी कहाँ बची है कि इस ज्ञान का जीभार्के रसपान करूं. यही सोचकर वे उदास हो गये. 


इसी उदासी से भरकर किसी तरह वे विश्वगुरु के साथ चलने का प्रयास करने लगे. अब विश्वगुरु की चाल के साथ उनकी चाल धीमी पड़ने लगी और टॉलस्टॉय हांफने लगे. हाँफते हुए कदम बढाते हुए उनकी जिज्ञासा और कौतुहल बढ़ता जा रहा था. वे पहले विश्वगुरु की बातों का अर्थ नहीं समझ पा रहे थे लेकिन कभी ख़ुशी कभी ग़म और आइटम सांग की बात आते ही वे समझ गये कि उनका सामना पूर्व की महान मनीषा से हुआ है. 


इस निष्कर्ष तक आते ही वे सम्मान से थोडा और झुककर अपनी छड़ी के सहारे चलने लगे. झाड़ियों से अभी अभी निकले विश्वगुरु दूसरों के झुकने या अकड़ने का बहुत बारीकी से ख्याल रखते हैं. वे टॉलस्टॉय को झुकता देख चहके और बोले ‘यही शुभ लक्षण है... पेड़ जब फलों से लद जाता है तो वह भी आपकी तरह झुक जाता है... आपने इस प्रातः सत्संग में जो ज्ञान हासिल किया उससे आप अधिक विनम्र बन गये हैं महाशय... बधाई हो’


अपने अज्ञान की टीस और झाड़ियों से आती हंसी की महान चोट से उबर रहे टॉलस्टॉय को यह प्रशंसा किसी मरहम की तरह लगी. वे तत्काल विश्वगुरु के चरणों में दंडवत करके लेट गये. विश्वगुरु पुलकित और गर्वीले भाव अपनी छप्पन इंच की छाती फुलाए झाड़ियों की तरफ देखने लगे. विश्वगुरु की इस विजय को देख चारों तरफ फ़ैली झाड़ियों के पीछे से साधू-साधू की ध्वनी गूँजने लगी. विश्वगुरु अपनी विजय से आश्वस्त होकर करुणा की मुद्रा में झुके और अपने बांये हाथ की गीली ऊँगलीयों से टॉलस्टॉय के मस्तक पर तिलक किया और उन्हें अपनी शिष्य मण्डली में शामिल कर लिया. 


टॉलस्टॉय इस अद्भुत दीक्षा से चमत्कृत हुए कुछ देर वहीँ खड़े रहे. वे इस महान अघोरी दीक्षा का महात्म्य समझने का प्रयास करते रहे लेकिन असफल रहे. लेकिन चूंकि वे जान चुके थे कि विश्वगुरु के प्रत्येक कृत्य में कोई न कोई गूढ़ रहस्य छुपा होता है इसलिए वे मौन ही रहे. इस मौन को अपने ह्रदय में संभाले हुए वे लौटकर अपने गेस्ट हाउस में आये और अपने बरसों पुराने उपन्यास वार एंड पीस की एक प्रति निकाली और एक मोटे से मार्कर पेन से उसका पुराना टाइटल काट दिया और नया टाइटल लिख दिया – ‘कभी ख़ुशी कभी ग़म’


- संजय श्रमण


लेखक राष्ट्रीय स्तर पर सामाजिक विकास के सक्रिय विचारक भी हैं ।