◆ ऑक्सफोर्ड ब्लू’ का खिताब पाने वाले हॉकी के एकमात्र अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी
◆ झारखंड आंदोलन के एक सर्वोच्च नेता
◆ जाने माने राजनीतिज्ञ, पत्रकार, लेखक, संपादक, शिक्षाविद्
◆ उनकी कप्तानी में 1928 के ओलंपिक में भारत ने पहला स्वर्ण पदक प्राप्त किया।
युवा काफिला(पुण्यतिथि विशेष)-
आज 20 मार्च है और यह दिन भारतीय इतिहास के साथ साथ जनजातीय इतिहास का भी अहम दिन है । इसी दिन (20 मार्च 1970) संविधानसभा में जनजातियों की आवाज रखने वाले, झारखंडी लोगों का नेतृत्व करने वाले महान जननायक जयपाल सिंह मुंडा ने अंतिम सांस ली थी और भारतीय राजनीति के एक और चमकीले सितारे का अस्त हुआ था।
इस अवसर पर ये बताना जरूरी है कि जनजातीय समाज कभी भी व्यक्ति पूजा में विश्वास नहीं रखता और न ही वह अपने पूर्वजों की मूर्तियाँ गढ़ता है। यह समाज अपने नायकों को याद तो करता है उन्हे उचित सम्मान भी देता है , ,लेकिन खामखां का महिमामंडन भी नहीं करता। पूरे भारतवर्ष में जनजातीय समाज यह मानता आया है कि उसके पूर्वज उनके साथ ही रहते हैं और उसके सुख-दुख में भी हमेशा साथ ही रहते हैं।
जनजातीय व्यवस्था के लंबे इतिहास में बहुत ही कम लोग इतिहास के पन्नों तक आ पाये हैं या बहुत ही कम ऐसे लोग हैं जिन्हे आम जनता जानती है । उनमें से कुछ नाम जैसे - सिधो, कान्हू, चांद, भैरव, बिरसा, तात्या, वीर नारायण, गुंडाधुर आदि यदा कदा सुनने को मिल जाते हैं क्योंकि इतिहासकारों ने जनजातीय नायकों को कभी वो स्थान नहीं दिया जिसके वो हकदार थे। यहाँ तक कि खुद जनजातीय समाज भी अपने नायकों का कभी भी महिमा मंडन नहीं करता। आजादी के बाद जिन जन नायकों को याद किया जाता है उनमें शामिल हैं - जयपाल सिंह, बाघुन सुम्बरई, शिबू सोरेन, एनई होरो, रामदयाल मुंडा, मंगरु ऊईके आदि। आज हम इन्हीं नायकों में एक महानायक जयपाल सिंह मुंडा को याद करेंगे।
कौन थे जयपाल सिंह मुंडा?
जयपाल सिंह मुंडा भारतीय जनजातियों और झारखंड आंदोलन के एक सर्वोच्च नेता थे। वे एक जाने माने राजनीतिज्ञ, पत्रकार, लेखक, संपादक, शिक्षाविद्, खिलाड़ी, और कुशल प्रशासक थे। जिन्होने झारखंड राज्य की परिकल्पना, झारखंडी संस्कृति, अस्मिता एवं पहचान के लिए जीवन पर्यंत संघर्ष किया। जयपाल सिंह मुंडा ने जिस प्रकार से जनजातियों के इतिहास, दर्शन और राजनीति को प्रभावित किया, जिस तरह से झारखंड आंदोलन को अपने वक्तव्यों, सांगठनिक कौशल और रणनीतियों से भारतीय राजनीति और समाज में स्थापित किया वह अद्वितीय है।
प्रारंभिक जीवन -
जयपाल सिंह मुंडा का जन्म 3 जनवरी 1903 को खूंटी के टकरा पाहनटोली में हुआ था। इनके पिता का नाम अमरू पाहन तथा माता का नामराधामणी था। इनके बचपन का नाम प्रमोद पाहन था। झारखंड के खूंटी के टकरा पाहन टोली स्थित खपड़ा व मिट्टी से बने जिस घर में जयपाल सिंह मुंडा का जन्म हुआ था । आज वो देखरेख के अभाव में ढह चुका है। जयपाल सिंह मुंडा जिस कद के व्यक्ति थे अगर वे चाहते तो अपने लिए आलीशान घर बना सकते थे, पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। उस कच्चे घर के अलावा जयपाल सिंह का कोई और घर नहीं था।
शिक्षा दीक्षा-
जयपाल सिंह मुंडा की प्रारंभिक शिक्षा उनके पैत्रिक गांव में ही हुई। ईसाई धर्म स्वीकार करने के कारण उन्हे सन 1910 में रांची के चर्च रोड स्थित एसपीजी मिशन द्वारा स्थापित संत पॉल हाईस्कूल में दाखिला मिला और यहीं से 1919 में प्रथम श्रेणी से मैट्रिक पास की। सन 1920 में जयपाल सिंह को कैंटरबरी के संत अगस्टाइन कॉलेज में दाखिला मिला। सन 1922 में आक्सफोर्ड के संत जांस कॉलेज में दाखिला मिला।
जनजातियों का पहला आई सी एस अधिकारी -
लोग सुभाष चन्द्र बोस को सब जानते है कि वे भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी थे लेकिन बहुत कम लोग जानते होंगे कि जयपाल सिंह मुंडा भी भारतीय सिविल सेवा (उस समय के आईसीएस ) में चयनित हुए थे लेकिन हाकी के मोह को न छोड़ पाने के कारण सिविल सेवा से त्यागपत्र दे दिया था।
भारत को पहला गोल्ड मेडल जीताने वाले अंतर्राष्ट्रीय हाकी खिलाड़ी -
ब्रिटेन में वर्ष 1925 में ‘ऑक्सफोर्ड ब्लू’ का खिताब पाने वाले हॉकी के एकमात्र अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी थे। उनके ही नेतृत्व और कप्तानी में भारत ने 1928 के ओलिंपिक का पहला स्वर्ण पदक हासिल किया था। अंतरराष्ट्रीय हॉकी में मरांग गोमके जयपाल सिंह मुंडा की कप्तानी में देश को पहला गोल्ड मेडल मिला था़।
सांसारिक जीवन-
जयपाल सिंह मुंडा का विवाह सन 1931 में कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन के अध्यक्ष व्योमकेश चन्द्र बनर्जी की नतिनी तारा मजूमदार से हुआ था । तारा से उनकी तीन संताने हैं 2 बेटे वीरेंद्र और जयंत तथा एक बेटी जानकी। उनकी दूसरी शादी जहांआरा से सन 1954 में हुई जिनसे एक पुत्र हैं जिंका नाम है रणजीत जयरत्नम।
कार्यक्षेत्र-
जयपाल सिंह मुंडा का व्यक्तित्व और प्रतिभा को देखते हुए उन्हे पादरी बनाने के लिए ही इंग्लैंड में उच्च शिक्षा के लिए भेजा गया था। लेकिन बाद में उनहों पादरी बनाने से इंकार कर दिया। लंदन से लौट कर आने बाद उन्होने ने कोलकाता में बर्मा सेल में नौकरी जॉइन कर ली । तत्पश्चात रायपुर स्थित राजकुमार कॉलेज के प्रिंसिपल नियुक्त हुए। इसी क्रम में कुछ दिनों तक बीकनर नरेश के यहाँ राजस्व मंत्री की नौकरी भी की।
सामाजिक और राजनैतिक जीवन -
बीकनर के राजा कि नौकरी छोडकर सन 1937 में आदिवासी महासभा के अध्यक्ष बने । 1946 में जयपाल सिंह खूंटी ग्रामीण क्षेत्र से कांग्रेस के पूरनोचन्द्र मित्र को हरा कर संविधान सभा के सदस्य बने। एक जनवरी 1948 को हुए खरसावां गोली कांड ने उन्हें बहुत दुखी किया इसके बाद उन्होने एक आदिवासी महासभा का नाम बदल कर झारखंड पार्टी नामक राजनैतिक दल बनाया।
सन 1952 के लोकसभा चुनाओ में जयपाल सिंह मुंडा सांसद चुने गए और अन्य चार संसदीय सीटों पर उनकी पार्टी कि विजय हुई और विधानसभा में उनकी पार्टी को 34 सीटे मिली । 1957 के आम चुनाव में भी पार्टी ने वैसा ही शानदार प्रदर्शन किया लेकिन 1962 के चुनाव में विधानसभा में केवल 20 सीटें हासिल हुईं।
20 जून 1963 में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के प्रस्ताव पर झारखंड पार्टी का कांग्रेस में विलय करना उनकी सबसे बड़ी राजनैतिक भूल थी। उनकी इस भूल को कभी भी जनजातीय जनता ने माफ नहीं किया हालांकि वे 1952 से मृत्युपरांत 1970 तक खूंटी से सांसद रहे।
रचनाएं
लो बीर सेन्द्रा और आदिवासिज्म उनकी दो महत्त्वपूर्ण किताबें हैं।
निधन
इस महान नायक का आज के ही दिन यानि 20 मार्च सन 1970 में दिल्ली में उनके निवास पर मस्तिष्क रक्तस्राव (सेरेब्रल हैमरेज ) के कारण निधन हो गया थाJ जिसकी भरपाई आजतक नहीं हो सकी है। आज ऐसे ही महान नायक की पुनः जरूरत है, जो जनजातीय समुदाय को एक सूत्र में बांधकर फिर उनका वैभवशाली इतिहास और सम्मान वापस करवा सके।
आइये आज इस महान सपूत को सभी श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए हूल जोहार करें !
डॉ सूर्या बाली “सूरज धुर्वे”