निधन/नहीं रहे आदिवासियों के अधिकारों के लिए सदैव हुंकार भरने वाले मशहूर एक्टिविस्ट और स्कॉलर डॉ. अभय खाखा

सिलीगुड़ी- 


देश में वंचित वर्ग और खासकर आदिवासियों के अधिकारों के लिए सदैव हुंकार भरने वाले मशहूर एक्टिविस्ट और स्कॉलर डॉ. अभय खाखा का शनिवार को 37 वर्ष की अल्पायु में निधन हो गया। डॉ. खाखा का निधन दिल का दौरा पड़ने से हुआ। डॉ. खाखा आदिवासी समाज के लोगों के लिए आयोजित एक कार्यशाला में हिस्सा लेने के लिए सिलिगुड़ी गए थे। कार्यक्रम के बाद चाय बागान घूमने निकले। उसी समय अचानक उनकी तबियत खराब हो गई। वहां से नजदीकी अस्पताल ले जाने के दौरान उनकी मौत हो गई। डॉ. अभय खाखा पिछले कुछ महीने से बीमार चल रहे थे। उनके शव को उनके पैतृक गांव छत्तीसगढ़ के जशपुर जिले ले जाया जाएगा।



ज्ञात हो कि डॉ अभय फोर्ड फ़ॉलोशिप पर विदेश मे पढाई करने वाले भारत के पहले आदिवासी नेता रहे हैं। 


छत्तीसगढ़ के जशपुर में जन्मे मशहूर आदिवासी एक्टिविस्ट डॉ अभय खाखा की हृदयगति रुक जाने के कारण निधन समाज को अपूरणीय क्षति हैं। 
खाखा जेएनयू से पढ़े थे और डॉ. अभय की ट्रेनिंग एक सोशियोलॉजिस्ट के तौर पर हुई। वह जमीनी संगठनों से जुड़े रहे और आदिवासियों के अधिकारों के लिए एनजीओ, अलग-अलग जन अभियानों, एनजीओ, मीडिया और शोध संस्थानों के साथ मिलकर काम करते रहे।


मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के वनाधिकार को लेकर वह खासे मुखर थे-
आदिवासी अधिकारों के लिए चलाए जा रहे नेशनल कैंपेन के वह संयोजक थे। वह विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और वेबसाइट्स के लिए लिखते रहे।


डॉ खाखा को आदिवासियों के अधिकारों के लिए आवाज उठाने के लिए जाना जाता था।


वनाधिकार कानून के खिलाफ जिंदगी भर लड़ते रहे
आदिवासियों की जिंदगी की कठिनाई से वह काफी पहले ही रूबरू हो गए थे । जनजातीय समुदाय से आने की वजह से उन्हें इसका बखूबी अंदाज था।


1990 के दशक में जब खाखा सेकेंडरी के छात्र थे तो उन्हें औपनिवेशक काल से चले आ रहे भारतीय वनाधिकार कानून, 1927 के तहत जेल में बंद कर दिया गया था. खाखा को जंगल से जलावन की लकड़ी इकट्ठा करने के आरोप में जेल में बंद कर दिया गया था।
स्कूल हॉस्टल में दिन का खाना बनाने के लिए लकड़ी इकट्ठा करने गए खाखा को आखिरकार जमानत पर रिहा किया गया। इस तरह के कुछ और अनुभवों ने उन्हें आदिवासी हितों के संघर्ष के लिए प्रेरित किया। बाद में वह जेएनयू आए और फोर्ड फेलोशिप पर पढ़ने के लिए विदेश चले गए। लौट कर उन्होंने आदिवासियों के अधिकारों के लिए आंदोलन जारी रखा। ट्राइबल इंटेलेक्चु्अल कलेक्टिव और नेशनल कोलेशन फॉर आदिवासी जस्टिस के संयोजक के तौर उन्होंने देश में अलग-अलग जगहों पर चल रहे आदिवासी संघर्षों को एक आवाज और पहचान दी।


जारी किया था आदिवासियों के मुद्दों पर आधारित मेनिफेस्टो


जेएनयू से डॉक्टरेट हासिल करने वाले खाखा ने पिछले चुनावों में प्रमुख पार्टियों के लिए मेनिफेस्टो जारी किया गया था। इसमें उन्होंने देश के 30 राज्यों में रह रहे 10 करोड़ आदिवासियों के हितों के लिए काम करने की अपील की थी।


खाखा शिक्षा से जुड़े मुद्दों पर एडवोकेसी के लिए जाने जाते हैं. उन्होंने प्राथमिक और उच्च शिक्षा को अपने संघर्ष का मुद्दा बनाया था। आदिवासियों के अधिकारों के लिए लड़ने वाले देश के कई संगठनों और शख्सियतों ने खाखा के निधन पर गहरा शोक प्रकट किया है। डॉ. अभय खाखा की असमय मौत पर मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन और पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने गहरा शोक जताया है।